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३०६ ३०६. .........जिनवाणी-विशेषाङ्क.. तत्त्वों के प्रति श्रद्धा रखना सम्यक् दर्शन है। कुछ लोगों में तो यह स्वभावतः प्रकट होता है और कुछ इसे विद्योपार्जन एवं अभ्यास के द्वारा प्रकट करते हैं। यथा -कोई व्यक्ति स्वतः विभिन्न प्रयोगों के आधारपर सत्य का उद्घाटन कर वस्तु तत्त्व के स्वरूप को जानता है तो कोई पूर्व में किये गये प्रयोगों के आधार पर कहे गये कथनों पर विश्वास करके वस्तु तत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है। इस तरह दोनों ही दशाओं में व्यक्ति का दृष्टिकोण यथार्थ ही कहलाता है । हाँ ! यदि अंतर है तो दोनों की प्रक्रिया में । एक ने उसे स्वतः की अनुभूति से प्राप्त किया है तो दूसरे ने श्रद्धा के द्वारा।
सम्यक् दर्शन जिसे मोक्ष का साधन माना जाता है और जो हमारी भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर है, को क्या मूल्य की संज्ञा से विभूषित किया जा सकता है? इस सन्दर्भ में हम डॉ. सागरमल जैन द्वारा लिखित कुछ सन्दर्भो को प्रस्तुत करना चाहेंगे। उनका कहना है कि श्रमण-परम्परा में लम्बे समय तक सम्यग्दर्शन का दृष्टिकोणपरक अर्थ ही ग्राह्य रहा था जो बाद में तत्त्वार्थ श्रद्धान के रूप में विकसित हआ। यहां तक श्रद्धा में बौद्धिक पक्ष निहित था, श्रद्धा ज्ञानात्मक थी। लेकिन जैसेजैसे भागवत सम्प्रदाय का विकास हुआ, उसका प्रभाव जैन और बौद्ध श्रमण-परम्पराओं पर भी पड़ा। तत्वार्थ की श्रद्धा बुद्ध और जिन पर केन्द्रित होने लगी और वह ज्ञानात्मक से भावात्मक और निर्वैयक्तिक से वैयक्तिक बन गयी। वस्तुतः सम्यक् दर्शन का यथार्थ दृष्टिकोणपरक अर्थ ही प्रथम एवं मूल अर्थ है। ____यदि सही मायने में देखा जाये तो श्रद्धा भी अपने आप में मूल्य ही है। जैसा कि गीता में लिखा गया है - 'श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् ।” अर्थात् श्रद्धाशील ज्ञान को प्राप्त करता है। गीता के ही नवें अध्याय में कहा गया है कि यदि कोई अतिशय दुराचारी व्यक्ति भी अनन्यभाव (श्रद्धा) से मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परमशान्ति को प्राप्त करता है। इसी प्रकार बाइबिल में भी मनुष्य के संवेदनशील पक्षों पर विशेष बल देते हुए कहा गया है कि एक मात्र श्रद्धा से ही ईश्वर के राज्य की प्राप्ति संभव है।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि सम्यक् दर्शन को हम यथार्थ दृष्टि कहें या तत्वार्थश्रद्धान दोनों एक ही हैं, वास्तविकता की दृष्टि से दोनों में कोई अन्तर नहीं है। पं. सुखलाल संघवी ने अपनी पुस्तक में लिखा है - तत्त्वश्रद्धा ही सम्यक् दृष्टि हो तो भी वह अर्थ अन्तिम नहीं है, अन्तिम अर्थ तो तत्त्व साक्षात्कार है । तत्त्व श्रद्धा तो तत्त्व साक्षात्कार का एक सोपान मात्र है, वह सोपान दृढ़ हो तभी यथोचित पुरुषार्थ से तत्त्व का साक्षात्कार होता है। वस्तुतः सम्यक्दर्शन मोक्षमार्ग का एक साधन है और मोक्षमार्ग में इसका सर्वोच्च स्थान है। इसके बिना आगम ज्ञान, चारित्र, तप आदि सब 'बेकार हैं। दर्शनपाहुड में इसकी महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि जिनप्रणीत सम्यक् दर्शन को अंतरंग भावों से धारण करना चाहिये क्योंकि यह सर्वगुणों में और रत्नत्रय में सार है तथा मोक्षमार्ग की प्रथम सीढ़ी है । १२ इसी प्रकार रयणसार में कहा गया है . जिस प्रकार भाग्यशाली पुरुष कामधेनु, कल्पवृक्ष, चिन्तामणिरत्न और रसायन को प्राप्त कर मनोवांछित उत्तम सुख को प्राप्त करता है उसी प्रकार सम्यक् दर्शन से भव्य जीवों को सर्व प्रकार से सर्वोत्कृष्ट सुख व समस्त
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