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सम्यग्दर्शन : मानव मूल्यों के संदर्भ में
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xx डॉ. विजय कुमार
श्रीमती सुधा जैन
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संसार का चाहे कोई भी मूल्य हो, तत्त्वतः वह मानवमूल्य ही है। लेकिन प्रश्न उपस्थित होता है कि मानव - मूल्य से हमारा अभिप्राय क्या है ? क्या हमारा अभिप्राय 'मानव का मूल्य' से है, अथवा 'मानव के लिए मूल्य' से है, अथवा 'मानवद्वारा निर्मित मूल्य' से है ? यदि हम 'मानव- मूल्य का अर्थ मानव का मूल्य से लेते हैं तो पुनः प्रश्न उपस्थित होता है कि मानव का मूल्यांकन कौन करता है? इतना तो सत्य है कि मूल्यों का सम्बन्ध मानव से होता है साथ ही यह भी उतना ही सत्य है कि मानव स्वयं अपना मूल्यांकन करता है । क्योंकि मूल्यबोध का सम्बन्ध मानव - बुद्धि से होता है । मानव-बुद्धि एवं मानव- चिन्तन हर देश और हर काल में समान हो यह आवश्यक नहीं है । कारण कि व्यक्ति से लेकर विश्व तक मूल्य-बोध के कई पड़ाव दृष्टिगोचर होते हैं, यथा - व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र तथा विश्व । एक ही व्यक्ति का स्वयं के प्रति मूल्य कुछ और होगा, परिवार के प्रति उसका मूल्य कुछ और होगा तथा समाज, राष्ट्र तथा विश्व के प्रति उसका मूल्य कुछ और होगा । किन्तु सबकी जड़ में व्यक्ति का स्वयं के प्रति मूल्य ही निहित है। व्यक्ति अपने अंदर जिन गुणों को विकसित करता है उसकी जीवनचर्या भी उसके अनुरूप रूपायित होती है तथा जब ये ही गुण सर्वमान्य होकर समाज के सभी सदस्यों के द्वारा आचरणीय हो जाते हैं तब वही मूल्य बन जाते हैं ।
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हमारे भारतीय समाज, सभ्यता तथा संस्कृति ने विश्व में श्रेष्ठ मूल्य संहिता को जन्म दिया है। आदिमकाल से लेकर आज तक मनुष्य ने जो भी भौतिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक उन्नति की है, वही उसकी संस्कृति है । चाहे कोई भी संस्कृति हो, वह मानव-संस्कृति का ही अंग होती है, किन्तु उसके कुछ निजी गुण होते हैं। संभवतः यही कारण है कि भारतीय संस्कृति के अनेक मूल्य शाश्वत होने का दावा करते हैं । उन्हीं अनेक शाश्वत मूल्यों में से एक मूल्य है- 'सम्यग्दर्शन' ।
'सम्यग्दर्शन' को भारतीय विचारधारा की तीनों परम्पराओं (वैदिक, जैन एवं बौद्ध) में स्वीकार किया गया है । सम्यग्दर्शन दो शब्दों के योग से बना है - सम्यक् + दर्शन । सम्यक् का सामान्य अर्थ होता है - उचितता, यथार्थता, शुद्धता, सत्यता आदि । लेकिन जैन ग्रंथ ‘अभिधान राजेन्द्र कोश' में तत्त्व के प्रति रुचि को सम्यक् कहा गया है । १ 'दर्शन' शब्द जो 'दृश' धातु से निष्पन्न है, का सामान्य अर्थ होता है - 'देखना ' । लेकिन स्वभावतः यह प्रश्न उपस्थित होता है कि हम किसके द्वारा देखते हैं और क्या देखते हैं । हम आंखों के द्वारा किसी वस्तु या पदार्थ को देखते हैं । यह दर्शन का सामान्य अर्थ है । जैनदर्शन में जीवादि पदार्थों को देखना, जानना, श्रद्धा करना आदि को दर्शन कहा गया है । तत्त्वार्थसूत्र तथा उत्तराध्ययनसूत्र' में भी 'दर्शन' शब्द का अर्थ तत्त्व श्रद्धा ही किया गया है। इस प्रकार जैन परम्परा में सम्यक् दर्शन तत्त्व साक्षात्कार्, आत्म साक्षात्कार, अन्तर्बोध, दृष्टिकोण, श्रद्धा और भक्ति आदि अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जैसा कि सम्यक् दर्शन को परिभाषित करते हुए कहा गया है - यथार्थ ज्ञान के प्रति श्रद्धा का होना ही सम्यक् दर्शन है । " जैन परम्परा में सात तत्त्व स्वीकार किये गये हैं, उन्हीं सात * वरिष्ठ एवं कनिष्ठ शोध अध्येता
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