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________________ ३०४ जिनवाणी-विशेषाङ्क एकाधिकार, शक्ति का केन्द्रीकरण जैसी बुराइयों पर भी नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है। अर्थव्यवस्था में अपनायी जाने वाली नीतियों का प्रकृति, समाज-व्यवस्था व संस्कृति से समन्वय होना भी जरूरी है, जिनका मानव को सुखी बनाने में महत्वपूर्ण योगदान होता है। जंगलों को उखाड़कर पर्यावरण को बिगाड़. कर व प्रकृति को नाराज कर भौतिक वस्तुओं का उत्पादन तो अधिक किया जा सकता है व अर्थशास्त्र की सामान्य भाषा में कुल उपयोगिता में भी वृद्धि हो सकती है, लेकिन उससे लाभदायकता नहीं बढ़ सकती है। ऐसा करके जीवन-स्तर तो ऊंचा उठाया जा सकता है, किन्तु जीवन को नहीं। क्योंकि सम्यग्दर्शन के अनुसार जीवन का लक्ष्य 'खाओ, पीओ और मौज करो' नहीं है। इसलिये यहां झूठे प्रचार, उपभोग के लिए अत्यधिक विकल्प, उत्पादन के बाद आवश्यकता का सृजन, गलाकाट प्रतियोगिता, पूंजी ही विकास का आधार जैसी मान्यताओं का महत्त्व नहीं हो सकता है, क्योंकि सर्व कल्याण के लक्ष्य में ये बड़ी बाधाएं हैं। सम्यग्दर्शन प्रत्येक अर्थव्यवस्था का आधार होना चाहिये। -खण्डला हाऊस, २ठ १४, जवाहर नगर, जयपूर ३०२००४ बिन समकित के ज्ञान न होवे करने जीवों का कल्याण, पधारे पद्म प्रभु भगवान कोसंबी उद्यान के मांही, रचा है समोशरण सुखदाई, बानी सुने सभी नर आम ॥१॥ पधारे. जब से होती समकित आन, तब से होता जन्म प्रमाण । बिन श्रद्धा के शून्य समान ॥२॥ पधारे. बिन समकित के ज्ञान, ज्ञान बिना पचखाण न सोहे । त्याग बिना मिले नहीं निर्वाण ॥३॥ पधारे. देव अरिहंत गुरु निर्गन्थ, धर्म है जीव दया सद् ग्रन्थ । होना दृढ प्रतिज्ञावान ॥४ ॥ पधारे. शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा, आस्तिक होय करे नही शंका। लक्ष है लाक्षिक की पहिचान ॥५ ।। पधारे कमलवत रहे निर्लेप सदा ही, रचता मोह माया में नाहीं। धाय ज्यों पाले है सन्तान ॥६॥ पधारे. मिथ्या मल लगने नहीं पावे, निश्चय चौथ मुनि तिरजावे । सच्चा है प्रभु का फरमान ॥७ ।। पधारे. . -श्री चौथमल जी म.सा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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