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________________ सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार ३०३ विज्ञापन-व्यय उत्पादन लागत से कई-कई गुना अधिक होता है, मरम्मत करवाना नये क्रम की तुलना में महंगा है। आर्थिक विकास के दबाव के कारण वहां वृद्ध, महिला व बालकों के लिये चल रही अति-आवश्यक सामाजिक सेवाओं को भी बंद किया जा रहा है। फिर भी रक्षा-व्यय पागलपन की सीमा तक पहुंच गया है। गरीबों की संख्या ही नहीं, बल्कि कुल जनसंख्या में प्रतिशत भी बढ़ रहा है। कमोबेश ऐसी ही दयनीय स्थिति रूस, युगोस्लाविया (पुराना नाम) पोलेण्ड, उत्तरी कोरिया, क्यूबा जैसे नियंत्रित अर्थव्यवस्थाओं की हो रही है। इनमें से अधिकांश राष्ट्रों में भूखमरी, बेरोजगारी, महंगाई, गरीबी व नैतिक पतन अपने शिखर पर पहुंच गये हैं। वहां भी मानवीय संवेदनाओं का तेजी से ह्रास हो रहा है। ___अर्थव्यवस्था में उत्पन्न विकृतियों के कारण ही राजनैतिक व सामाजिक व्यवस्था भी चरमरा गयी है। कुल मिलाकर दोनों ही प्रकार की मॉडल अर्थव्यवस्थाओं वाले नागरिकों की स्थिति हर प्रकार से दयनीय है। जिनमें चाहे भौतिक विकास (जिसे समृद्धि कहा जाना अधिक आकर्षित करता है) हुआ हो, लेकिन साथ ही यह वृद्धि लालच, अनैतिकता, शोषण, उत्पीड़न, स्वार्थ, स्वकेन्द्रित सोच, नकारात्मक प्रतियोगिता, स्व के लिए समूह का अहित, सत्ता के दुरुपयोग के क्षेत्र में भी बहुत अधिक हो गयी है । आज चारों ओर छल, कपट, बेईमानी, व्यभिचार, नशाखोरी, धोखा, घूसखोरी, हिंसा आदि के माध्यम से सब पर बस पैसा कमाने का भूत सवार हो रहा है। भारत जैसे धार्मिक व आध्यात्मिक-प्रवृत्ति तथा 'सादा जीवन उच्च विचार' के आदर्श वाले देश में नित नये करोड़ों रुपयों के घोटालों के खुल रहे राज से तो यह स्पष्ट हो जाता है कि अर्थव्यवस्था में अर्थ व भौतिक विकास को ही सब कुछ मान लेना भारी भूल है। ऐसे में अर्थव्यवस्था में सम्यग्दर्शन का अपनाया जाना ही अकेला विकल्प है। तब ही व्यक्तियों को सुखी बनाया जा सकता है। यह तब ही हो सकता है जब आर्थिक विकास को ही अंतिम लक्ष्य नहीं, बल्कि उसे सामाजिक, धार्मिक व नैतिक विकास का माध्यम माना व बनाया जाय। भौतिक विकास वह ही श्रेष्ठ व सुखदायी हो सकता है जिसमें सामाजिक लागत न्यूनतम हो, यानी उत्पादन या लाभ वृद्धि के लिए दूसरों के अधिकारों पर आघात, अपने लिये दूसरों के हितों की उपेक्षा, मानवीय श्रम का अति न्यून भुगतान, पूंजी पर अत्यधिक निर्भरता व उसे जरूरत से ज्यादा वरीयता, धन के केन्द्रीकरण की सम्भावनाएं व ऊपर समझे जाने वालों की अकर्मण्यता जैसे तत्वों का अस्तित्व न्यूनतम हो। पूंजी-प्रधान अर्थव्यवस्थाओं में मानवता दया, करुणा, सहयोग, परोपकार, परिश्रम, समझौता, समन्वय, सहनशीलता जैसे मानवीय गुणों का महत्त्व स्वतः कम हो जाता है। अर्थव्यवस्था में श्रम की प्रधानता देकर ही बेरोजगारी की समाप्ति, आर्थिक विषमता में कमी, अवसर की समानता, गरीबी उन्मूलन, हर स्तर पर स्वावलम्बन जैसे उद्देश्यों के करीब पहुंचा जा सकता है। साथ ही अकर्मण्यता, सहनशीलता जैसे मानवीय गुणों का महत्त्व स्वतः कम हो जाता है। अर्थव्यवस्था में श्रम को प्रधानता देकर ही बेरोजगारी की समाप्ति, आर्थिक विषमता में कमी, अवसर की समानता, गरीबी उन्मूलन, हर स्तर पर स्वावलम्बन जैसे उद्देश्यों के करीब पहुंचा जा सकता है। साथ ही अकर्मण्यता, सामाजिक विद्वेष, वर्ग संघर्ष, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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