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________________ अर्थव्यवस्था में सम्यग्दर्शन : मूलाधार हो सर्वकल्याण डा. मानचन्द जैन 'खण्डेला' अर्थ-व्यवस्था हमारे जीवन-व्यवहार का अंग है, किन्तु यह जब जीवन-मूल्यों से दूर एवं मात्र आर्थिक-विकास से सम्बद्ध हो जाती है तो जीवन का असली लक्ष्य छूट जाता है। सामाजिक, राजनैतिक एवं व्यक्तिगत समस्याएं बढ़ जाती हैं। इसलिए अर्थव्यवस्था पर भी सम्यक् दृष्टिपरक चिन्तन आवश्यक है।-सम्पादक संसार के विभिन्न राष्ट्रों में राजतंत्र, लोकतंत्र, फौजतंत्र या कुलीनतंत्र जैसी शासन-व्यवस्था और पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद, मिश्रित या इस्लामिक विचारधाराओं पर आधारित अर्थव्यवस्था है। इनमें से प्रत्येक में दावा अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम कल्याण का ही किया जाता है। पूंजीवादी विचारधारा के अन्तर्गत 'श्रेष्ठ को ही अस्तित्व बनाये रखने का अधिकार है' के सिद्धान्त पर चलकर अधिकतम व्यक्तियों को कल्याणकारी परिस्थितियों तक पहुंचने की प्रेरणा दी जाती है या कहा जाना चाहिए कि ऐसा करने के लिए मजबूर किया जाता है । इस विचारधारा का मूल तत्त्व प्रतियोगिता है, जो कि अधिकतम समय तक अधिक व अच्छा करने की प्रेरणा देती है। इस मान्यता के अनुसार इसी कारण से दीर्घकाल में अधिकांश व्यक्ति अपने लिये मंगलकारी परिस्थितियां पैदा करने में सफल हो जाते हैं, जबकि दूसरी ओर साम्यवादी विचारधारा के अन्तर्गत समाज में पिछडे, पीडित, उपेक्षित व गरीब व्यक्तियों को प्रतियोगिता कर सकने की स्थिति में लाने का दायित्व राज्य का माना जाता है अर्थात् मानव को जीने योग्य परिस्थितियां पाने का अधिकार होता है। इसीलिए ऐसी व्यवस्थाओं में प्रतियोगिता के स्थान पर सहायता व सहयोग पर अधिक जोर दिया जाता है। जहां तक राजनीति व अर्थनीति में सम्बन्धों का सवाल है सामान्यतया लोकतांत्रिक राष्ट्रों में स्वतंत्रता पर आधारित अर्थनीति को व गैर लोकतांत्रिक राष्ट्रों में नियंत्रण पर आधारित अर्थनीति को अपनाया जाता है। यहां धनी से अधिकतम धन लेकर गरीब को अधिकतम देने की कोशिश की जाती है तथा अर्थव्यवस्था में सरकारी भूमिका अत्यधिक होती है। यहां महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि इनमें से कौनसी व्यवस्था को श्रेष्ठतम माना जाय? या सर्वाधिक लोक-कल्याणकारी अर्थ-व्यवस्था कौनसी हो सकती है। इसी प्रश्न पर हम नैतिक व धार्मिक दृष्टि से अर्थव्यवस्था में सम्यग्दर्शन के संदर्भ में विचार कर सकते हैं। तुलनीय दृष्टि से विचार किया जाये तो निरपेक्ष रूप में किसी भी प्रकार की विचारधारा पर आधारित अर्थव्यवस्था को श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि स्वतंत्रता पर आधारित अर्थव्यवस्था जिसे सामान्य भाषा में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था कहा जाता है, में जहां कार्यक्षमता, इच्छाशक्ति व साहस जैसी प्रवृत्तियों का विकास होता है तथा व्यापक चिन्तन, कार्य के प्रति रुचि, वैज्ञानिकता व तर्क पर आधारित व्यावहारिकता के विस्तार के अधिक अवसर मिलते हैं, वहीं शोषण, स्वार्थ व संकीर्णता की दुष्प्रवृत्तियां भी स्वतः बढ़ने लगती हैं तब सरकार सार्वजनिक कल्याण व * अध्यक्ष, आर्थिक प्रशासन एवं वित्तीय प्रबन्ध विभाग, एस.एस.जैन सुबोध महाविद्यालय, जयपुर (राज) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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