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________________ ३०० जिनवाणी-विशेषाङ्क वर्तमानता, (२) सहजता एवं (३) अनासक्ति । सम्यक् दृष्टि का संसार वर्तमान से जुड़ा हुआ होता है । वह दूसरे लोगों की भांति न तो भूत में जीता है और न भविष्य में रमता है। उसका प्रत्येक वर्तमान क्षण, विवेक तथा अप्रमत्तता के साथ बीतता है। उसका उपयोग पक्ष सदा जाग्रत रहता है। 'इणमेव खणं वियाणिया' (सूत्रकृतांग, १/२/३/१९) अर्थात् जो क्षण सदा जाग्रत रहता है उसकी दृष्टि में वही महत्त्वपूर्ण व उपयोगी है। वास्तव में 'खणं जाणाहि पंडिए' (आचारांग सूत्र, १/२/१) की सूक्ति को वह अपने जीवन में चरितार्थ करता है। सम्यक्दृष्टि का जीवन कृत्रिमता की अपेक्षा सहजता से अनुप्राणित रहता है। वह बाहर कुछ, भीतर कुछ की अपेक्षा, बाहर-भीतर की अन्तररेखा को समाप्त कर सहज और सरल अर्थात् आर्जवी जीवन जीता है। मनसा-वाचा-कर्मणा की एकरूपता ही उसके जीवन का सार है। ऐसा जीवन प्रामाणिकता से ओत-प्रोत रहता है। प्रामाणिक जीवन सत्य, अहिंसा, अचौर्य, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य-इन पंच सूत्रों से समन्वित होता है। सम्यग्दृष्टि जीव पेट भरता है, पेटी नहीं। वह संग्रह की सड़ांध से सदा दूर रहता हुआ सहज-गत्यात्मक प्रवाह वाला होता है ।उसकी जीवनचर्या परिमाणमय होती है। जहां इच्छाओं-आकांक्षाओं की नहीं, मात्र आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। क्योंकि इच्छा तो आकाश के समान असीम है,अपरिमित है ।यथा इच्छा हु आगाससमा अणंतिया।' (उत्तरा- ध्ययनसूत्र, ९/४८) इच्छाओं के वशीभूत व्यक्ति का जीवन एक अजीब प्रकार की घुटन तथा तनावों से घिरा रहता है ।इसलिए इच्छाओं के व्यामोह से हटना ही जीवन का सार है। सम्यक्दृष्टि जीव अनासक्त भाव से जीता है। विषय-कषायों से वह निर्लिप्त रहता है। उसकी स्थिति कीचड़ में खिले कमलवत् होती है, यथा जह सलिलेण ण लिप्पड़, कमलिणिपत्तं सहावपयडीए। ..तह भावेण ण लिप्पइ कसायविसएहि सप्पुरिसो।।-भावपाहुड १५४ अर्थात् जैसे कमलिनी का पत्र स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होता वैसे ही सम्यक्दृष्टि जीव सम्यक्त्व के प्रभाव से कषाय और विषयों में लिप्त नहीं होता है। मोहादि के आवर्तन उसके लिए अप्रभावी रहते हैं। मोहासक्त प्राणियों में भेद-विज्ञान की शक्ति सुप्त रहती है। अनेक प्रकार की काषायिक चिपकनों, लालसाओं में डूबे रहने के कारण ऐसे व्यक्ति में यथार्थ-अयथार्थ, सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म तथा स्व-पर आदि को पहिचानने की सामर्थ्य नहीं होती है। आत्म-विकास में यह आसक्ति सबसे बड़ी बाधा है। इसको मेटने के लिए सम्यक्त्व की शरण में जाना ही श्रेयस्कर रहता है। सम्यक्त्व की साधना में जो स्थिति बनती है, वह समत्व की होती है। समत्व के जगने पर सारा संसार निस्सार प्रतीत हो उठता है। कषाय-कौतुक निस्तेज हो जाते वस्तुतः सम्यग्दर्शन से अनुप्राणित जीवन संसार और उसके रंग-बिरंगे आकर्षणों में न तो रमता है और नहीं फंसता है, अपितु वह वस्तुस्थिति का आकलन करता हुआ सतत अध्यात्म-साधना में लीन रहकर जन्म-मरण के बंधनों को काटने का सदा उपक्रम करता है। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि का जीवन एक आदर्श-अनुकरणीय जीवन होता है जिसे अपनाकर कोई भी व्यक्ति सुखी और समृद्ध बन सकता है। -मंगलकलश, ३९४, सर्वोदय नगर, आगरा रोड़, अलीगढ़ (उ.प्र.) २०२००१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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