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________________ सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार २९९ सम्यक्दृष्टि जीव सदा अध्यात्मवादी होता है, भोगवादी नहीं। वह भोग में भी अभोग जैसी स्थिति में होता है। वह कर्म तो करता है, किन्तु उसका कर्म भोग के लिए नहीं, योग के लिए होता है। अतः संसार को वह भोगभूमि नहीं, कर्मभूमि मानता है। उसकी दृष्टि में कर्म से निष्कर्म होने के लिए संसार एक साधना-स्थली है। यहाँ उसकी सम्यक्त्व की साधना सम्पन्न होती है। सम्यक्त्व-साधना में साधक अपनी इन्द्रियों तथा मन की वृत्तियों को सम्यक् संयम-तप-ध्यानादि की ओर मोड़ देता है जिससे उसके आस्रव द्वार बंद होते हैं और संवर-निर्जरा के द्वार खुलते हैं। इस प्रकार सम्यक्त्व सार्थक होने पर संसारी जीव संसार से सदा-सदा के लिए तिर जाता है। सम्यक्दृष्टि जीव के अध्यात्मवादी होने का अभिप्राय है कि वह बहिर्मुखी की अपेक्षा अन्तर्मुखी होता है। संसार के बाह्य पदार्थों में वह रमता नहीं है। उसकी रुचि आत्मा का विकास कैसे हो, इसके चिन्तन-अनुचिन्तन में होती है। सांसारिक पदार्थ तो उसे नश्वर प्रतीत होते हैं। उसकी दृष्टि में आकर्षण-विकर्षण पदार्थों में नहीं, व्यक्ति के भावों में समाया रहता है। भावों की मलिनता ही उसे गर्त में ले जाती है। आत्मिक उत्कर्ष तो सम्यक्त्व-साधना से ही सम्भव है, जहां भाव बहिर्जगत् से अन्तर्जगत् तदनन्तर परमात्मजगत् की यात्रा-पथ पर सतत आरूढ़ रहते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव सदा आस्थावादी होता है। उसकी यह आस्था अन्तरंग से होती है, बाहर से थोपी हुई नहीं। इसलिए वह कभी शंकित-कांक्षित नहीं हुआ करता है। निःशंकित, तथा निःकांक्षित उसके अतिरिक्त गुण होते हैं। आत्मविश्वास या आत्मबल जब प्रबलतम रूप में होता है तो उसके लिए शंका, जिज्ञासा का रूप धारण करती है। जिज्ञासा की प्रवृत्ति ही व्यक्ति के अन्तरंग में सुप्त-प्रसुप्त ज्ञान और दर्शन गुण को जाग्रत कर उपयोग को जगाती है। प्रश्न है आस्था या श्रद्धा किस पर हो? तो उसके लिए तीन बातों को जानना-समझना अत्यन्त अपेक्षित है-एक है हेय, दूसरा है ज्ञेय, तथा तीसरा है उपादेय । क्या हेय है और क्या ज्ञेय है यदि इसका ठीक-ठीक परिज्ञान हो जाए तो उपादेय को अंगीकार किया जा सकता है। सम्यक्दृष्टि जीव हेय-ज्ञेय के स्वरूप को भली-भाँति जानता हुआ उपादेय को ही आत्मसात् करता है। उसका श्रद्धान-विश्वास मूढ़ताओं पर नहीं देव, गुरु तथा धर्म के सच्चे स्वरूप पर होता है। उसकी दृढ़ आस्था जीवादि तत्त्वों-पदार्थों पर होती है जो उसे शिवत्व की ओर ले जाती है। सम्यक्दृष्टि का सोच कभी भी हठाग्रह या कदाग्रह से संश्लिष्ट नहीं होता है। जो कुछ भी वह विचारता है उसमें 'अनन्तधर्मात्मकं' का सिद्धान्त समाया रहता है अर्थात् अनैकान्तिक सोच से संयुक्त उसका व्यवहार स्याद्वादपरक होता है। अस्तु वैचारिक दूषण-प्रदूषण और द्वन्द्व से वह सदा दूर रहता हुआ संसार को तटस्थ भाव से देखता है। तटस्थता अर्थात् निर्लिप्तता की स्थिति पूर्णता और यथार्थता को समझने में सहायक बनती है। यथार्थता में सारे भेद, अभेद में परिवर्तित हो जाते हैं। 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' तथा 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' के पवित्र भाव वहां जन्मते हैं। वास्तव में सम्यक्दृष्टि का जीवन अनेकान्तमय होने से आनन्द से सदा आप्लावित रहता है। उसका जीवन निश्चयेन अनन्त आनन्द का एक अक्षय कोष है जहां कोई भी शत्रु-मित्र सहज रूपेण अवगाहन कर सकता है। सम्यक्दृष्टि की जीवन-पद्धति मुख्यतः तीन बातों पर अवलम्बित है-(१) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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