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________________ २९८.............................. जिनवाणी-विशेषाङ्क सम्यक् दृष्टि जीव की धारणा है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आपमें पूर्ण तथा स्वतंत्र होता है। वह किसी अखण्ड सत्ता का अंश-अंशी नहीं होता है। वह अपने उपादान के माध्यम से ही अपनी आत्मा का पूर्ण विकास कर संसार चक्र से सर्वथा मुक्त-विमुक्त होता हुआ सिद्धत्व को प्राप्त हो सकता है। सम्यक्दृष्टि की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह व्यक्ति-शक्ति की अपेक्षा उसमें व्याप्त गुणों को महत्त्व देता है। प्रत्येक व्यक्ति में अनन्तगुण होते हैं और वह भी शाश्वत रूप में। शाश्वतता की पूजा ही सार्थ है। वास्तव में गुणों की वंदना-उपासना जीवन की सार्थकता को सिद्ध करती है। गुणों के स्तवन से ही जीवन में जहाँ विनय और श्रद्धा के संस्कार जगते हैं, वहीं अहंकार-मद का विसर्जन भी होता है। दूसरों को तुच्छ और अपने को महान् समझने में अहंकार की भूमिका सर्वोपरि होती है। उपगूहन का वहाँ अभाव होता है। आज धर्म, जाति, कुल, आदि के नाम पर जो झगड़ा हो रहा है उसका श्रेय भी अहंकार को जाता है। अहंकार से द्वन्द्व, अन्तर्द्वन्द्व, कलह तथा तनाव का माहौल बनता है। वास्तव में सारे झगड़ों की जड़ अंधकार है। विनय और श्रद्धा के बीज परस्पर प्रेम व सौहार्द का वातावरण उत्पन्न करने की शक्ति और सामर्थ्य रखते हैं। ऐसी स्थिति में विषाद-विद्वेष और वैर को अवकाश ही नहीं मिल पाता है। ऐसा जीवन हितकारी और मानवता-वर्द्धक होता है। वत्सलता वहां पायी जाती है। वास्तव में ऐसे जीवन से सम्पृक्त व्यक्ति की दृष्टि अपने तक ही सीमित नहीं अपितु उसमें विस्तार होता है। यह विस्तार ही तो समस्त मतभेदों को मेटता है। वास्तव में सम्यकदृष्टि जीव आत्मिक गणों से सदा मंडित रहता है, जिससे वह स्वयं तो सुखी होता ही है, दूसरों को सुखी होने की प्रेरणा भी देता है। ___ सम्यक्दृष्टि जीव पुरुषार्थचतुष्टय के प्रति सतत जागरूक रहा है। पुरुषार्थ चतुष्टय में पहला पुरुषार्थ है धर्म और अंतिम है मोक्ष। धर्म और मोक्ष के बीच में अर्थ और काम को रखा गया है। इसका अभिप्राय है कि संसार की जितनी भी क्रियाएं हैं वे यदि धर्म से अनुप्राणित हैं तो जीवन आनन्द से आप्लावित रहता है। धर्म आत्मा का स्वभाव है। स्वभाव सदा शाश्वत व चिरन्तन रहता है। उसमें कभी बदलाव नहीं आता है। आत्मिक स्वभाव अनन्तचतुष्टय से सर्वथा युक्त होता है। सम्यक् दृष्टि जीव आत्मस्वभाव में सदा रमण करता है। आत्मस्वभावी का अभीष्ट लक्ष्य मोक्ष है जो धर्म का मार्ग है । इस प्रकार मोक्ष जीवन का एक अनिवार्य अंग है जिसे सम्यग्दृष्टि सार्थक करने का प्रयत्न करता है। उसकी दृष्टि में आत्मा अमर-अजर है, अविनश्वर है। यथा 'अहं अव्वए वि अह अवट्ठिए वि।' (ज्ञाताधर्म १/९) नश्वरता तो शरीर में है। यह शरीर अनित्य है, अशुचि है। अशुचि से ही इसकी उत्पत्ति भी हुई है। आत्मा का यह अशाश्वत-आवास-गृह है तथा दुःख और क्लेशों का भाजन है। यथा-'इमं सरीरं अणिच्चं, असुई असुइसंभवं । असासयावासमिणं, दुक्ख-केसाणं भायणं ।' (उत्तराध्यन सूत्र, १९/१२), वास्तव में आत्मा और है, शरीर और है-'अन्नो जीवो, अन्नं सरीरं ।' (सूत्रकृतांग, २/१/९) इसलिये शरीर के व्यामोह में वह नहीं पड़ा करता है। उसका ध्येय तो आत्मा के पूर्ण विकास पर है। आत्मा का यह पूर्ण विकास तभी सम्भव है जब आत्मा पर लगे कर्म कषायों के अनन्त आवरणों को, जो इसके दर्शन, ज्ञान और चारित्र गुण को प्रभावित किए हुए हैं, अनावृत कर दिया जाता है। आत्मा की इस विकसित अवस्था में सम्यग्दर्शन पूर्णतः मुखर रहता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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