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________________ २८९ सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार सम्पूर्ण ज्ञान और दर्शन है और वही सम्यक् ज्ञान व दर्शन है । सही रूप से जानने का अर्थ भी यही है कि जो भी वस्तु है उसको सब पहलुओं से जानें । अतः सम्यक् दर्शन का अर्थ पूर्ण दर्शन व सही दर्शन दोनों अर्थों में उपयुक्त सिद्ध होता है। 'दर्शन' शब्द का अर्थ प्राय: केवल देखने से लिया जाता है। परन्तु चक्षुदर्शन से भिन्न अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन व केवल दर्शन भी है जिनका न हमें अनुभव है न अभ्यास है। दर्शन प्राप्त करने में सर्वप्रथम बिना चक्षु के अन्तर्जगत् में क्या हो रहा है उसे देखना व अनुभव करना अत्यन्त आवश्यक है। शरीर में अत्यन्त सूक्ष्म तरंगें चल रही हैं और शरीर पर कई तरह की संवेदनाएं उत्पन्न हो रही हैं, उनको सूक्ष्म रूप से बिना चक्षु के अनुभव करना अचक्षुदर्शन की प्रथम सीढ़ी है। संवेदना के खेल को जानने व देखने के साथ द्रष्टाभाव जागृत होने पर दर्शन सम्यक् दर्शन बनता है अन्यथा सुखद संवेदना के साथ राग और दुःखद संवेदना के साथ द्वेष उत्पन्न कर हम राग-द्वेष की कड़ी ही बढ़ाते हैं। हमारा साधारण जीवन प्रतिक्रिया का जीवन है। जन्म से ही चाहने और न चाहने की प्रतिक्रिया सीखते हैं। जो संवेदना, वस्तु या व्यक्ति शरीर व मन को सुखद है, उसे हम अपने पास रखना चाहते हैं, संग्रह करना चाहते है अर्थात् राग करते हैं और जो दुःखद है उसे दूर हटाना चाहते हैं और उससे द्वेष करते हैं। इस राग-द्वेष के आधार पर हम मन में चिन्तन करते हैं, वाणी से कड़वे या मीठे वचन कहते हैं और प्रकट में शरीर से संग्रह या विग्रह की प्रवृत्ति करते हैं। इसीसे सामने वाला व्यक्ति प्रतिक्रिया करता है और हम फिर पुरानी आदत के अनुसार पुनः प्रतिक्रिया करते हैं। सुखद वस्तु के आगमन से हम सुखी होते हैं और दुःखद वस्तु के आगमन से दुःखी। सुख और दुःख हमारे राग-द्वेष पर आधारित संस्कारजनित अनुभूतियां हैं। इन अनुभूतियों के आधार पर ही हम अपने को दुःखी या सुखी महसूस करते हैं। सुख की संवेदना को एकत्र करने को लालायित रहते हैं और दुःख की संवेदना को हटाने में तत्पर रहते हैं। परन्तु सम्यक् दर्शन की ओर बढ़ने वाला व्यक्ति इन दोनों अनुभूतियों को अनुभव के स्तर पर जानकर द्रष्टाभाव से निष्पक्ष रहेगा और केवल जानेगा व देखेगा। किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं करेगा। तब ही उसका दर्शन सम्यग् बनेगा। इस तरह अनुभूति को जानकर केवल द्रष्टा की स्थिति में आने पर सत्य की अन्य गहराइयों में जाने की व सत्य के अन्य पहलुओं को जानने की स्थिति बनती है। अनुभूति ही हमारा जानने व देखने का आधार है और यही मार्गदर्शक बने, तब ही सत्य की गहरी परतें नजर आती हैं। पंडित बनारसीदास जी समयसार नाटक में अनुभव के महत्त्व को बताते हुए लिखते हैं अनुभव चिंतामनि रतन, अनुभव है रसकूप। अनुभव मारग मोखको, अनुभव मौख सरूप ॥ अनुभव चिंतामणि रूप है और वही शान्तिरस का कुआं है। अनुभव मुक्ति का मार्ग है और अनुभव ही मुक्ति-स्वरूप है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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