SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९० जिनवाणी-विशेषाङ्क अनुभव को प्रकट मुक्ति स्वरूप बताया इससे ज्यादा अनुभव के महत्त्व पर क्या कहा जा सकता है। परन्तु अनुभव क्या है इसकी भी व्याख्या पंडित श्री बनारसीदास जी ने की है, जो निम्न प्रकार है वस्तु विचारत ध्यावते, मन पावे विश्राम। रस स्वादन सुख उपजै, अनुभव याको नाम। आत्म-पदार्थ का विचार और ध्यान करने से चित्त को जो शांति मिलती है तथा आत्मिक-रस का आस्वादन करने से जो आनन्द मिलता है, उसको अनुभव कहते हैं। आत्मानुभूति की हम सब बातें करते हैं, परन्तु क्या है और कैसे प्राप्त की जाये, यह एक मूल प्रश्न है। अपनी अनुभूति को हम स्वयं जानें व उसी के आधार पर सत्य की गहराई में उतरें और सत्य को जानें, यही आत्मानुभूति है। इस रस में डुबकी लगाते हुए अनुभूति को यथाभूत जानना, उसमें न तो कुछ थोपना है और न राग-द्वेष करना है तब ही हम सत्य का दर्शन कर पायेंगे और यही हमें केवल दर्शन की स्थिति में पहुंचायेगा । जहां हम केवल देख रहे हैं, और जो है वह जान रहे हैं और देख रहे हैं, न प्रतिक्रिया कर रहे हैं और न उसमें कुछ मिलावट कर देख रहे हैं। यथाभूत देखना ही सम्यक् दर्शन है। सम्यक् दर्शन अर्थात् जैसा है वैसा देखना, उसमें अपना मत या विचार न थोपना, उसके प्रति राग-द्वेष न करना, जो है उसे स्वीकार करना यह प्रवृत्ति ही अंत में हमें केवल दर्शन पर पहुंचाती है। इसलिए कहा है कि घड़ी भर भी सम्यग्दर्शन की पकड़ हो जाये और आत्मतत्त्व के दर्शन हो जायें तो भव-नाश होकर मोक्ष मिल जाये । अतः सम्यक् दर्शन ही केवल दर्शन की प्रथम सीढ़ी है । ___ यदि जीवन में हमने यह सीख लिया कि जो है उसको यथाभूत जानें और स्वीकार करें व उसके प्रति राग या द्वेष की भावना न रखें तो हमारे प्रत्यक्ष जीवन में आज और अभी सुख का खजाना खुल जाएगा। जो हमारी स्थिति है उसको यथाभूत स्वीकार करलें व उससे राग या द्वेष न करें तो दुःख का मूल ही नष्ट हो जाता है । हमारे दुःख का मूल कारण राग या द्वेष ही है। जो चीज प्रिय है उसके प्रति राग कर उसे एकत्र करना, उसका संरक्षण करना और खो जाने पर दुःखी होना, यह दुःख है। जो चीज या स्थिति नहीं चाहिये उसे हटाना और हटाने में सफल न होने पर किसी अन्य को दोषी मानना और उससे वैर भाव रखना, यह भी दुःख है। यह बात मानसिक स्तर पर व तर्क के आधार पर तो हम सब स्वीकार करते हैं, परन्तु अनुभूति के स्तर पर न तो हम जानते है और न ही व्यवहार में उतारते हैं। अनुभूति के स्तर पर जब यह बात उतरेगी तब ही व्यवहार में प्रकट होगी। अनुभूति के स्तर पर जब यह प्रतीत होगा कि जो भी वस्तु, पदार्थ या संवेदना जगत् में मिल रही हैं वे अनित्य हैं, जो आ रही हैं वे जा भी रही हैं, जो मिल रही हैं, वे बिछुड़ भी रही हैं, जो उत्पन्न हो रही हैं वे नष्ट भी हो रही हैं और यह क्रम प्रत्येक बाहरी वस्तु, पदार्थ या संवेदना में है तो महसूस होगा कि जो आ-जा रही है उसके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy