SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बढ़ते भोग-साधन और सम्यग्दृष्टि * Xxx डा. धनराज चौधरी भौतिकी - वैज्ञानिक डा. धनराज चौधरी ने अपने लेख में विज्ञान के कारण बढ़ते भोग-साधनों के आकर्षण को मिथ्यात्व की श्रेणी में रखते हुए आध्यात्मिक दृष्टि किं वा सम्यग्दृष्टि को अपनाने पर बल दिया है । - सम्पादक 1 हमारे देश के लिए विज्ञान और आधुनिकता अब पराये नहीं हैं । कदाचित् पराये वे कभी भी नहीं थे, क्योंकि परिवर्तन आंधी तूफान की तरह छोटे स्थान में नहीं होते । परिवर्तन विश्वजनीन होता है । सारी धरती पर वही सौंध उठती है, वायु वैसा ही गीत गाती है और सूर्य की रश्मियां वैसी ही शक्ति संचारित करती है प्रत्येक महाद्वीप में चोटी की हस्तियां विशेष अक्षांश और देशान्तर पर पैदा नहीं होती हैं, वे मशालें हर एक अंधेरे कोने में जलती हैं। यह नया प्रकाश ही होता है जो आधुनिक जर्जर के स्थान पर नई ऊर्जा को स्थापित करता है। जरा सोचें यह प्रकाश और यह ऊर्जा हमारे यहां क्या रूपाकार ग्रहण कर गये ? 1 परिवर्तन अवश्यंभावी है, वह तो होगा ही । परिवर्तन नियोजित होता है तो वांछित उपलब्धि होती है। नये की दिशा दृष्टिविहीन एवं दर्शन-परित्यक्त होती है, तो बहुत सारा प्राप्य होकर भी प्रयोजन रहित सा हो जाता है। दरअसल सारी दुनिया का हाल एकसा है । कितना सारा है सब कहीं, फिर भी हितकारी तो कुछ अंश ही है जल, थल, पवन, अग्नि, आकाश सभी तो मनुष्य की पकड़ में हैं मगर मनुष्य स्वयं बेहाल । वह बेबस और प्रायः निरीह है। उपलब्धियां गिनायें तो अंगुलियों के खाने कम पड़ते हैं, मगर सुख की चादर बदन के लिए छोटी पड़ती है। लगता है कहीं कुछ अलग-अलग सा है बाहर का और भीतर का । शरीर का और शरीर से परे का । वस्तु और अवस्तु प्रकट और अप्रकट । बदलाव की प्रक्रिया में लगता है कहीं इनका तालमेल बिगड़ गया। हो सकता है परिवर्तन के दबाव ही कुछ इस तरह के हों कि बाह्य जगत् अधिक संपुष्ट हो चला, भीतरी संसार क्षीणतर होता गया । नैसर्गिक तौर पर ऐसा नहीं होता है कि दक्षिणी ध्रुव कमजोर हो जाय और उत्तरी ध्रुव शक्तिशाली बना रहे । अथवा सिक्के के अंक का भाग अधिक उभार पाये और चित्र की साइड घिस जाय । मगर मनुष्य में तो ऐसा हुआ। इससे यह भी आभास होता है किं यह अनैसर्गिक है और कहीं व्यक्ति प्रकृति के तदनुरूप न होकर कुछ पृथक् हो गया है । आदिवासी प्रायः कहते हैं कि प्रकृति बड़ी है, आदमी छोटा है। आदिवासियों की यह और ऐसी बातें हाल ही में, बढ़ते असंतुलन के परिप्रेक्ष्य में, वजनदार हो चली। बर्नाड शॉ अपनी सारी बुद्धि का सौदा करने को तैयार हो उठे, केवल इसलिए कि वे आदिवासी की भांति उन्मुक्तता से नृत्य कर पायें। आस्ट्रेलिया के पर्यावरणविदों ने आदिवासियों की यह सीख गांठ बांध ली कि प्रकृति से उतना ही लो, जितना की उसे वापस लौटा सको । चारे की फसल भरपूर हो और उसमें रोग न लगे इसलिए रसायनों का बहुतायत में उपयोग हुआ तो बदले में वे ही रोगकारी रसायन दूध के जरिये व्यक्तियों की आंतों और जिगर में * सह-आचार्य, भौतिकी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy