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जिनवाणी-विशेषाङ्क के फल को इस जीवन में देखने का प्रचलन ही नहीं है । परलोक को सुधारने के लिए ही धर्म किया/कराया जाता है ।
आत्मा के रोग की दवा : सच्चा धर्म __शरीर का रोगी दो तीन दिन दवाई लेकर देखता है कि मेरे रोग में कमी होकर नीरोगता बढ़ रही है या नहीं। धर्म भी तो आत्मा के मोह एवं राग के रहस्य मय रोग की दवा है । धर्म के फलस्वरूप जीवन में तनाव कम होकर शांति बढ़ती है। __ जिस प्रकार देश में राजनैतिक पार्टियों की स्थिति बनी हुई है, नेताओं में व्यक्तिगत स्वार्थ या अपनी-अपनी पार्टी की ही चिन्ता है देश की चिन्ता किसी को नहीं है यही हालत आज धर्म में बड़े-बड़े आचार्यों, साधुओं एवं श्रावक संघों के पदाधिकारियों की बनी हुई है। अधिकांश में या तो व्यक्तिगत मम एवं अहं की तृप्ति के लिए या फिर अपने संघ एवं सम्प्रदायों के नाम के लिए दौड़-धूप हो रही है। समाज की अथवा आत्मा की चिन्ता किसे है? जिस प्रकार देश की स्थिति खराब हो रही है ठीक उसी प्रकार धर्म एवं समाज की स्थिति भी दिनों दिन खराब हो रही है तथा समाज भी पतन के गहरे गर्त में गिर रहा है। यह स्थिति किसी एक देश या
एक समाज की नहीं, प्रायः सारे विश्व की और सभी धर्मों एवं समाजों की है। आज । भौतिकवाद की आन्धी में सच्चा अध्यात्म रूप धर्म तो लुप्तवत् ही हो गया। भौतिकवाद से मिलने वाला सुख सच्चा न होकर सुखाभास होता है जिसमें अशांति बढ़ती ही जाती है। सच्चा सुख वह होता है जिसके साथ शांति बढ़े और वह अध्यात्मवाद के बिना संभव नहीं हो सकता। सुख एवं शांतिमय जीवन यात्रा रूपी रथ का एक पहिया अगर भौतिकवाद है तो दूसरा अध्यात्मवाद है। एक पहिये का रथ अधिक दूर ठीक तरह से चल नहीं सकता। आज के युग में इस शान्ति के रथ का अध्यात्म रूप दूसरा पहिया गल चुका है। इसी के फलस्वरूप विश्व में भौतिकवाद की एकांगी दौड़ से सुख के साथ अशांति भी बढ़ रही है। धर्म के फलस्वरूप शान्तियुक्त सच्चा सुख मिलता है, पर वह तभी संभव है जब धर्म के नाम पर भी मम एवं अहं किंचित् मात्र भी न हो अन्यथा विषय-कषाय एवं रागद्वेष की वृद्धि के साथ बढ़ता हुआ धर्म भी प्राणशून्य शरीरमात्र ही रह जाता है। आज की आवश्यकता
जीवन रूपी रथ के अध्यात्म रूप दूसरे पहिये को सुधारने की आवश्यकता आज व्यक्ति से लेकर विश्व तक में है। सर्च धर्म एवं अध्यात्म में भौतिकवाद की आंधी में सुख भले ही बढ़ जाये, पर शान्ति के अभाव में सुख भी गले का फन्दा ही बनता जा रहा है। युद्ध एवं तनाव चाहे धर्म, देश, सम्प्रदाय, वर्ग-भेद आदि किसी के नाम पर हो, वह सच्चा धर्म नहीं हो सकता। वह तो पाप एवं अधर्म ही है। व्यक्ति से लेकर विश्व तक में शांति से जीवन जीने की कला का नाम ही सच्चा धर्म है। सच्चे धर्म के फलस्वरूप जीवन में हिंसा के स्थान पर अहिंसा, मोह के स्थान पर प्रेम,
वैमनस्यता के स्थान पर मैत्री, भ्रष्टाचार के स्थान पर सदाचार एवं तनाव के स्थान पर | शान्ति मिलती है। ममत्व एवं अहंत्व रूप कषायों की कमी से प्राप्त होने वाले सच्चे सम्यग्दर्शन रूप धर्म की आज के युग में परम आवश्यकता है।
-संगीता साड़ीज डागा बाजार, जोधपुर (राज)
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