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सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार
२८३ है। समभाव से पुराने कर्मों का नाश एवं नवीन कर्मों का बन्ध रुक जाता है एवं तत्काल शांति भी मिल जाती है। पाप, पुण्य एवं धर्म का भेद
संसार में आर्थिक, पारिवारिक, शारीरिक, मानसिक अथवा जन्म, जरा, मृत्यु तक में से कोई भी दुःख नहीं जो पाप का फल न हो, और कोई भी भौतिक या पौद्गलिक सुख ऐसा नहीं होता जो पुण्य का फल न हो। परन्तु दोनों के फल और बन्ध के कारण भिन्न-भिन्न हैं। पुण्य के फलरूप भौतिक सुख में तथा पाप के फल रूप दुःख में अर्थात् सुख एवं दुःख दोनों में पाप का बन्ध किया जा सकता है और दोनों अवस्थाओं में समभाव रूप शांति रखी या बढ़ाई भी जा सकती है। समभाव या समता धर्म कहलाता है और उसका फल तत्काल एवं भविष्य में भी शांति रूप ही होता है। आगमों में 'शुभस्य पुण्यं' तथा 'अशुभस्य पापं' (तत्त्वार्थसूत्र) अर्थात् मन, वचन, काया की शुभप्रवृत्ति से पुण्य एवं अशुभ प्रवृति से पाप का बन्ध माना गया है। अशुभ योग अर्थात् मोह एवं कषाय युक्त प्रवृत्ति से पाप का बन्ध होता है । मोह एवं कषायों की मन्दता अर्थात् कमी करने के पुरुषार्थ को शुभ योग कहते हैं, जिससे पुण्य का बन्ध होता है और कषायों एवं मोह के उपशम या क्षय करने रूप आत्मा के पुरुषार्थ को धर्म कहते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि अधर्म एवं पाप का मूल मोह एवं कषाय है और कषाय एवं मोह की कमी या मन्दता के बिना पुण्य तथा मोह एवं कषायों के क्षय, उपशम या क्षयोपशम के बिना धर्म नहीं होता। आज की स्थिति बडी विचित्र
यह ज्ञातव्य है कि धर्म न जैन होता है, न इस्लाम, न ईसाई, न पारसी, न वैदिक, न बौद्ध आदि। धर्म तो आत्मा के ज्ञान, दर्शन, सुख, शांति आदि गुणों को कहते हैं, जिनकी सत्ता सभी आत्माओं में समान रूप से पाई जाती है। जैन, बौद्ध, ईसाई आदि तो सम्प्रदाय हैं। हम जैन कहलाने वाले भी मानते हैं कि हमारे पूर्वज जैन थे इसलिये हम भी जैन हैं। धर्म के नाम पर आज भी दौड़-धूप तो काफी होती है, पर धार्मिक ज्ञान के नाम पर न नवतत्त्व का, ज्ञान है न छः द्रव्यों का और धर्म के नाम पर जो क्रियाएं की जा रही हैं चाहे वह सामायिक हो, चाहे प्रतिक्रमण, न उनके पाठों का पता है. न अर्थ व भावार्थ का ही। श्रद्धा की स्थिति तो इन दोनों से भी अधिक खराब है। फिर अधिकांशत: धर्म करने का उद्देश्य होता है भौतिक सुखों की प्राप्ति जो स्पष्ट ही विषय और कषाय रूप पापों को ही बढ़ाने वाली होती है। तीर्थ यात्रा, संत-दर्शन
आदि में भी नाम धर्म का होता है पर स्पष्ट ही घूमना, फिरना, अच्छा खाना एवं शहरों के दर्शनीय स्थानों को देखना मुख्य प्रयोजन सा हो गया है। फलस्वरूप इन प्रसंगों में इन्द्रियों एवं मन के पोषण रूप विषय और राग आदि कषायों को ही बढ़ावा मिलता है। विषय और कषायों का सेवन चाहे धर्म के नाम पर हो या पाप के नाम पर वह धर्म कदापि नहीं हो सकता, इसी प्रकार अहं एवं मम चाहे भोगों का हो या त्याग अथवा ज्ञान का हो तथा राग, द्वेष, ईर्ष्या, निन्दा, ममत्व आदि परिवार का हो या सम्प्रदाय का, इनमें धर्म या पुण्य नहीं हो सकता। और पाप का फल भौतिक सुख रूप भी नहीं हो सकता। तब सच्चा सुख एवं शांति तो हो ही कैसे सकते हैं? धर्म
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