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जिनवाणी- विशेषाङ्क
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जमा होने लगे । आदमी का पौरुषत्व बढ़े इसलिए युगांडा के विशेष गेण्डे के सींग के चूर्ण की मांग बढ़ी तो गेंडा प्रजाति लुप्त हो गई। जैविक विविधता के बिगड़ने से 'वन समस्या' एक नई भारी चिंता के रूप में मानव और जीव जाति के लिए आ खड़ी हुई । बर्बरों का आमोद-प्रमोद हिंसा हुआ करता था । वह आज किसी भी ऐरे - गेरे नत्थू - खेरे का रोमांच हो उठा। क्रूरता में कौन सबसे आगे आये, वह होड़ लगी है बलात्कार, स्त्री की हत्या, परिवार की हत्या, लूटना और फिर घर जला देना, यह सब चलने पर भी लगने लगा मजे में कमी रह गई । सब कुछ करने पर भी कोई कसर रह जाना वह कमी है जिसने आज के मानस को ग्रस्त कर रखा है। वह रोगी भी हो चला, मगर रोग से उतना परेशान नहीं है । जो परेशान है, जो उसकी परवाह करते हैं। वे ही छुटकारे के लिए भी अवकाश निकालते हैं ।
वस्तुतः स्थिति ऐसी लगती है कि बाह्य सुख-समृद्धि के मोटापे से बढ आये रक्तचाप और शर्करा की बीमारी से समाज का बहुल अभी त्रस्त नहीं है । जिन्हें इस वास्तविकता का पता लग गया वे बिस्तर पकड़े बैठे हैं। उन्हें नहीं भरने वाले घाव तथा सामान्य न होने वाली सांस न उठने देती है और न ही कुछ कहने । ऐसे में जो उनकी सेवा सुश्रूषा कर रहा है वह अन्य के अनुभव को निज का बनाकर कुछ करे, यही संभावित रास्ता नजर आता है ।
मनुष्य ऊर्जावान् है इसलिए जोखिम उठायेगा । रहस्य उघाड़ने के लिए वह रोमांचकारी कार्य करेगा । हित अथवा अहित का सीमित नजरिया उसका उद्देश्य नहीं है । वह जल्दी बड़ा - बूढ़ा होना नहीं चाहता है । उपदेश और आदर्श को हेय समझता है । उसे न केवल कहने वाले की कथनी-करनी में अंतर लगता है, बल्कि उसे अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष ही एक मात्र सत्य नजर आता है । समर्पण शब्द को वह हेय मानता है । उसके बोध, विश्वास और आचरण के प्रकार ही बदले-बदले हैं । उसका यथार्थ पदार्थ मात्र है और उसके लिए वस्तु ही सत्य है । चिकित्सा, कृषि, दिक् में उसकी गहरी पहुंच, पकड़ आदि उसका घमण्ड बढ़ाते हैं । बुद्धि लब्धि (आईक्यू) महत्त्वपूर्ण हो चली है तथा समझ और गहराई हेय । किसी ने कहीं नहीं पढ़ाया, मगर आज के युवा ने स्वयं आविष्कार किया है कि प्यार निरा पागलपन है । मानव-मूल्य को कूटनीति ने दूर धकेल दिया है और कवि की संवेदना अस्पष्टता में सिमट गई है । ऐसी और भी आवश्यक कुछ बातें हैं जो कि विद्यमान समय की लक्षण हैं । इनमें एक लक्षण है टूटन-भटकन थकन - खालीपन ... मरण ।
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लगता है मनुष्य की आपाधापी और भागदौड़ का अंतिम सिरा है महज व्यर्थता का अनुभव, जिसे भांपा था हमारे मनीषियों ने । विश्राम को उन्होंने महत्त्वपूर्ण कार्य माना था । श्रमहीन क्षणों में उसका कर्म और कर्मों से उपजे बंधन से सामना हुआ होगा । उससे प्राप्त मुक्ति को नाम दिया गया था पुरुषार्थ । उस पथ पर अग्रसर होने के लिए बतलाए गए विशेष बोध (सम्यग्ज्ञान), शुद्ध श्रद्धा (सम्यग्दर्शन), निर्मल आचरण (सम्यक् चारित्र) और कर्म की निर्जरा के लिए तप समर्पण के रास्ते । गिरने के रास्ते भिन्न-भिन्न होते हैं, उन्नयन के सारे रास्ते एक ही हैं । इसलिए दृष्टि में बदलाव होना आवश्यक है । दृष्टि के बदलते ही संरचना का आकार और प्रयोजन
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