________________
जिनवाणी- विशेषाङ्क
२७६
मिथ्या दर्शन क्या है ?
संसार में अधिकांश प्राणी पौगलिक धन, कुटुम्ब, शरीर आदि की संयोग रूप अनुकूलता में सुख और इनके वियोग या प्रतिकूलता में दुःख मानते हैं। संयोग एवं वियोग अथवा अनुकूलता एवं प्रतिकूलता के होने का मूल कारण स्वयं के किये हुए शुभ या अशुभ कर्म हैं जिनका कर्ता एवं भोक्ता वह स्वयं ही है, इस रहस्य को नहीं जानने के कारण आत्मा अपने को सुख में सुखी व दुःख में दुःखी अनुभव करता है I हर प्राणी चाहता तो है कि अनुकूलता सदा बनी रहे और प्रतिकूलता कभी आवे ही नहीं जिससे कि उसको दुःखी न होना पड़े, परन्तु चाहने पर भी ऐसा होता नहीं और अनन्त काल तक अनन्त जन्मों में सुख के लिये अथक प्रयास व साधना करने पर भी वह सच्चे रूप में सुखी हो नहीं पाता। इस सारे चक्र का मूल कारण आत्मा का स्वयं का दृष्टिदोष है और इस दृष्टिदोष को ही मिथ्यादर्शन माना गया है।
पर में सुख मानना मिथ्यात्व
पर अर्थात् स्वरूप आत्मा से जो भिन्न है अर्थात् जो जड़ है, अजीव है जिसमें न चेतना है न संवेदना है और न सुख-दुःख का गुण है उस 'पर' रूप पौगलिक वस्तु या परिस्थिति में सुख-दुःख की कल्पना करना मूल भूल है और यही मिथ्यात्व है । इस मिथ्यादर्शन के प्रभाव से प्राणी की समझ भी मिथ्या हो जाती है । जब मानना और जानना मिथ्या हो जाता है तब सारा आचरण अर्थात् सुख के लिये किया गया प्रयास भी मिथ्या
होता है। प्रश्न होता है कि पुद्गल में सुख नहीं है तो सुख लगता क्यों है? मिश्री खाते ही मुंह मीठा होता है और सुख प्रत्यक्ष महसूस होता है। मिश्री, धन अहं आदि के मिलते ही सुख महसूस होता ही है, फिर कैसे माना जाय कि सुख पुद्गल रूप मिश्री, धन आदि में नहीं है? हालांकि प्रश्न बहुत गहरा एवं यथार्थ है फिर भी गहराई से चिन्तन करने पर उत्तर समझ में आ सकता है । पहली बात तो अगर मिश्री में सुख देने की शक्ति हो तो सभी जीवों को सुख मिलना ही चाहिये, पर गधे को मिश्री अच्छी नहीं लगती। दूसरी बात भर पेट मिश्री खा लेने पर आखिर थोड़ी देर के लिये तो घृणा होने लग ही जाती है । तीसरी बात व्यक्ति प्रतिदिन भरपेट मिश्री ही खाये और कुछ दूसरा खाये ही नहीं तो शायद दो चार दिन भी पूरे नहीं निकाल सकेगा। चौथी बात मुंह को भले ही अच्छी लगे, पर पेट में जाकर वही दस्त आदि का कारण बनने पर दुःख रूप हो जाती है । इसी प्रकार धन के विषय में भी समझा जा सकता है । उदाहरण के लिए लाख रूपये के हीरा या सौ रुपये के नोट को एक अबोध बालक चार चाकलेट के बदले खुशी-खुशी छोड़ सकता है । दूसरी बात सौ से दस हजार रूपये सौ गुने होते हैं पर क्या सौ रूपये वाले को दस हजार रूपये मिलने पर उसका सुख सौ गुना बढ़ता है अथवा क्या सौ रूपये वाले भिखारियों से दस हजार रूपये वाले सौ गुना सुखी होते ही हैं ? उत्तर आखिर नकारात्मक ही मिलेगा । इसी प्रकार जिस व्यक्ति ने तम्बाकू, जर्दा आदि नशीले पदार्थ कभी चखे ही न हों उसे यदि धोखे से पान में रखकर खिला दिए जायें तो उसे चक्कर आने लगेंगे या उल्टी भी हो सकती है पर वही व्यक्ति थोड़ी थोड़ी करके हमेशा खाने लगे तो कुछ महीनों एवं वर्षों में वह उस नशे के आधीन हो जाएगा। जैसा कि प्रायः शराब, भांग, गांजा, हीरोइन, ब्राउन शुगर आदि के व्यसनी आजकल होते ही हैं । उन्हें उस वस्तु के न मिलने पर चक्कर आते हैं । आखिर बदला कौन ? वस्तु तो जो पहले थी
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org