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________________ सम्यग्दर्शन : जीवन- व्यवहार २७७ I वही अब भी है, पर व्यक्ति पराधीन हो गया। इसी प्रकार अनेक उदाहरणों से समझा जा सकता है । जैसे पैदल चलने वालों को साइकिल में सुख दिखता है, पर स्कूटर या कार वाले को साइकिल में सुख नहीं बल्कि दुःख लगत । अगर सुख साइकिल में हो तो वह सबको समान सुखदायक लगनी चाहिये। इसी प्रकार विष्ठा मनुष्य को घृणास्पद लगता है पर भंडसुरे को और विष्ठा में उत्पन्न होने वाले कीड़े को तो सुखप्रद ही लगता है । इस प्रकार कोई भी भौतिक वस्तु ऐसी नहीं जो सभी प्राणियों के लिए सुखप्रद या दुःखप्रद ही हो। इसका कारण यह है कि सुख या दुःख का गुण या सुख दुःख होने की शक्ति पुद्गल में होती ही नहीं । परन्तु जीव के अज्ञान एवं मिथ्यात्व के कारण पर में जो सुख लगता है उसीके फलस्वरूप वह धन, कुटुम्ब, शरीर एवं अहं आदि में ही ममत्व कषाय रूप मोह करता है । परन्तु रति, अरति आदि नोकषाय और उससे उत्पन्न होने वाले रागद्वेष एवं क्रोध, अहं (मान) आदि सभी कषाय रूप चारित्र मोहनीय के भेदों की जड़ 'दर्शन' मोहनीय मानी जाती है और दर्शन मोहनीय के भेदों में सबसे प्रमुख मिथ्यात्व मोहनीय को माना गया है। यहां तक कि मोह कर्म की २८ प्रकृतियों और आठ कर्मों की १४८ प्रकृतियों में भी सबसे प्रमुख प्रकृति मिथ्यात्व मोहनीय की मानी गई है । मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व आत्मा के स्तर तक I जैन आगमों में योग तीन प्रकार के माने गये हैं यथा मन, वचन एवं काया । इनमें काया के योग को आठस्पर्शी पुगलों वाला और मन एवं वचन के योगों को चार स्पर्शी पुलों वाला माना गया है, पर तीनों योग पौगलिक अर्थात् अजीव हैं । इनका संचालक आत्मा है जो अरूपी होने के साथ इनसे अनन्तगुणी शक्ति का धारक भी होता है । इसी प्रकार आठ कर्मों को एवं अठारह पापों को भी चार स्पर्शी पौद्गलिक माना गया है । (भगवतीसूत्र शतक १२, उद्दे. ५) परन्तु तीन दृष्टि मिथ्या, सम्यक् एवं मिश्र को तथा पांच ज्ञान, तीन अज्ञान एवं चार दर्शन इन सबको अरूपी माना गया है। जिससे यह फलित होता है कि मिथ्यात्व एवं अज्ञान आत्मा के स्तर तक होते हैं और ये आत्मा के वैभाविक गुण हैं । सम्यक्त्व तथा ज्ञान आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं। ये भी जब तक शरीर, इन्द्रिय, मन आदि के स्तर से बढ़कर आत्मा के स्तर तक नहीं होते तब तक निश्चय दृष्टि से सम्यग्दर्शन नहीं होता। इसीलिये शरीर, इन्द्रिय, मन अथवा हृदय के स्तर तक के सम्यग्दर्शन को द्रव्य व व्यवहार सम्यग्दर्शन ही माना है। सभी जीवों को इस स्तर का सम्यग्दर्शन तो अनन्त बार प्राप्त हो जाता है । (पन्नवणा पद - १५) द्रव्य व व्यवहार क्या है ? गुणशून्य वस्तु को द्रव्य कहते हैं जैसे आत्मा रहित मनुष्य के शरीर को द्रव्य मनुष्य कहते हैं और आत्मा सहित मनुष्य के शरीर को भाव मनुष्य कहते हैं । इसी प्रकार व्यवहार की व्याख्या 'पराश्रितो व्यवहार' अर्थात् 'पर' यानी पुगल के आश्रित या जड़ क्रिया को व्यवहार माना गया है । 'स्वाश्रितो निश्चयः' अर्थात् स्व यानी आत्मा के भाव को निश्चय माना गया है। धर्म का जीवन परक अर्थ सम्यग्दर्शन एवं मोह अथवा रागद्वेष या कषाय आदि की उपर्युक्त संक्षिप्त चर्चा शायद कुछ व्यक्तियों के समझ में आये या न भी आये इसलिए धर्म जो आत्मा का मुख्य गुण है जिसका सम्बन्ध प्राणी मात्र से हैं जिसको सामान्य व्यक्ति भी आसानी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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