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सम्यग्दर्शन: जीवन-व्यवहार
... २७५ है-'कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव'। .. मोह के भेद-प्रभेद ___ मोहकर्म के मुख्य दो भेद होते हैं। प्रथम दर्शन मोहनीय, दूसरा चारित्र मोहनीय । इनमें दर्शनमोहनीय के ३ तथा चारित्र मोहनीय के २५ भेद हैं।
(१) दर्शनमोहनीय के तीन भेद-१. मिथ्यात्व मोहनीय, २. सम्यक्त्व मोहनीय ३. मिश्र मोहनीय
(२) चारित्रमोहनीय के २५ भेद
(i) कषाय मोहनीय के सोलह भेद। १-४ अनन्तानुबन्धी- क्रोध मान माया लोभ । ५-८ अप्रत्याख्यानी- क्रोध मान माया लोभ ९-१२ प्रत्याख्यानी- क्रोध मान माया लोभ १३-१६ संज्वलन- क्रोध मान माया लोभ ।
(ii) नोकषाय मोहनीय के नौ भेद-१. हास्य, २. रति, ३. अरति, ४. भय, ५. शोक, ६. जुगुप्सा, ७. स्त्री वेद, ८. पुरुष वेद ९. नपुंसक वेद ___ दर्शन मोहनीय की तीन व चारित्र मोहनीय की चार (अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ) इन सात प्रकृतियों के क्षय से परम विशुद्ध क्षायिक सम्यग्दर्शन, सातों के उपशम से विशुद्ध उपशम सम्यग्दर्शन तथा चार अनन्तानुबन्धी कषाय के क्षय एवं मिथ्यात्व मोहनीय व मिश्र मोहनीय के क्षय या उपशम तथा सम्यक्त्व मोहनीय के उदय से शुद्ध क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन और मिश्र मोहनीय के उदय से अर्ध शुद्ध मिश्र दृष्टि मानी जाती है। ये सब निश्चय सम्यग्दर्शन हैं। द्रव्य व व्यवहार सम्यग्दर्शन में सातों प्रकृतियों का उदय ही माना जाता है। इस उदय में भी जितनी-जितनी मन्दता या कमी आती है उतना-उतना द्रव्य व व्यवहार सम्यग्दर्शन भी शुद्धि की ओर बढ़ता है। गुणस्थानों का विभाजन - क्षायिक सम्यग्दर्शन में गुणस्थान चौथे से चौदहवें तक होता है। उपशम सम्यग्दर्शन में गुणस्थान चौथे से ग्यारहवें तक तथा क्षयोपशम सम्यग्दर्शन में मुणस्थान चौथे से सातवें तक रहता है मिश्र दृष्टि में गुणस्थान मात्र तीसरा होता है। ___अनादिकालीन मिथ्यात्व से छूटने पर जीव सर्वप्रथम चतुर्थ गुणस्थान को प्राप्त करता है। यहीं से मोक्ष रूपी महल की नींव या धर्म रूप वृक्ष की जड़ लग जाती है। इससे पूर्व प्रथम गुणस्थान में जीव पाप रूप पेड़ के आंशिक रूप से डाली, पत्ते, तना आदि अनेक बार काटता है और अनन्तानुबन्धी कषाय को तथा मिथ्यात्व मोहनीय को हल्का करता है जिससे मन, वचन, काया की प्रवृत्ति शुभ हो जाती है। लेश्या शुक्ल हो जाती है पर आत्मा में बैठी हुई मिथ्यात्व मोहनीय रूप जड़ के पूरी तरह नहीं कटने से पुनः पुनः अनन्तानुबन्धी कषाय कम अधिक होते रहते हैं जिसके फलस्वरूप जीव चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करता ही रहता है।
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