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जिनवाणी-विशेषाङ्क रहे हुए होने पर भी जब तक आत्मा को अपने स्वरूप एवं गुणों का सच्चा ज्ञान एवं दृढ़ विश्वास नहीं होता तब तक वह धन, कुटुम्ब, शरीर एवं अहं जो 'पर' है 'पुद्गल' है, अजीव है, जड़ है उनमें दृढ़ विश्वास करता है और उन्हीं के माध्यम से मिलने वाले सुख को ही सच्चा सुख मानता है जिसके फलस्वरूप इनसे गहरा ममत्व एवं अहंत्व करता है। हालांकि यह नितान्त भ्रम है, मिथ्या है, फिर भी अनन्त काल से इसी भ्रम में जीने के कारण इस आत्मा में भ्रम के संस्कार इतने दृढ़ हो जाते हैं कि अपनी अन्तर आत्मा के अभिमुख होकर अपने स्वरूप एवं गुणों को देखने, समझने की रुचि ही जागृत नहीं होती। 'पर' के इस मिथ्या मम एवं अहम् को ही मिथ्यादर्शन कहा जाता है। अधर्म या दुःख का मूल एवं सभी पापों का मूल भी यह मिथ्यादर्शन शल्य एवं अठारहवां पाप ही माना गया। जब तक यह मिथ्या मोह नहीं छूटता तब तक सच्चे सुख के साधन रूप धर्म या सम्यग्दर्शन का प्रारंभ ही नहीं होता। पुण्य व धर्म का भेद - दर्शन या दृष्टि-शुद्धि के अभाव में किये जाने वाले ज्ञान को मिथ्या ज्ञान कहा जाता है, फिर चाहे वह सूत्रों का या पूर्वो तक का ही ज्ञान क्यों नहीं हो । इसी प्रकार सम्यग्दर्शन के अभाव में आचरण के रूप में किये गये पुरुषार्थ को धर्म न मानकर पुण्य माना गया । यद्यपि इस दृष्टि शुद्धि के अभाव में भी आत्मा देव-गुरु-धर्म पर अटूट श्रद्धा तथा ज्ञान के क्षेत्र में नौवें पूर्व की तीसरी आचार वस्तु तक का ज्ञान तथा चारित्र के क्षेत्र में शुक्ललेश्या युक्त विशुद्ध द्रव्य चारित्र का आराधक तक भी हो सकता है और ऐसी उत्कृष्ट साधना भी एक बार नहीं बल्कि अनन्त बार हमारी आत्मा ने कर ली, फिर भी मुक्ति तो दूर धर्म की शुरूआत रूप सम्यग्दर्शन भी अधिकांश को प्राप्त नहीं होता है। कैसा विचित्र एवं दुर्लभ है इस सम्यग्दर्शन का प्राप्त होना। अनन्त बार हर आत्मा पूण्य को ही धर्म मान लेने रूप धोखा खाया करती है। व्यवहार या बोलचाल की भाषा में पुण्य को ही धर्म कहा या माना भी जाता है। दुर्लभ श्रद्धा
आगमकारों ने भी आगमों के गहरे ज्ञान एवं कठिन त्याग रूप चारित्र की प्राप्ति से भी अनन्तगुणा कठिन व ‘परम दुर्लभ' इस निश्चय सम्यग्दर्शन को माना है यथा-'सद्धा परम दुल्लहा' (उत्त. अ. ३ गाथा ९) इसकी प्राप्ति का फल भी इतना अलौकिक बताया कि जिस जीव को यह मात्र अन्तर्मुहूर्त के लिये भी प्राप्त हो जाय तो उसकी मुक्ति निश्चित हो जाती है और जिस जीव को आयुष्य बन्ध के पूर्व यदि विशुद्ध अर्थात् क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाय तो वह निश्चित ही उसी भव में मुक्त हो ही जाता है। मोह का क्षय ही मोक्ष
जैन दर्शन की चारों परम्पराओं में आत्म-विकास के क्रम में चौदह गुणस्थान माने गये हैं। प्रथम गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक मोह कर्म की प्रकृतियों का क्षय, उपशम या क्षमोपशम आदि होता है तथा बारहवें गुणस्थान में मोह का सम्पूर्ण क्षय होता है जिसके होते ही अन्तर्मुहूर्त में जीव तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त कर ही लेता है। अर्थात् मोह कर्म रूप सेनापति के सम्पूर्ण नष्ट होते ही शेष तीन घाती कर्म नष्ट हो ही जाते हैं। इसीलिए आठ कर्मों में मोह कर्म को ही राजा की संज्ञा दी गयी। मोह एवं कषायों से मुक्त होने को ही सच्ची मुक्ति माना गया। कहा भी
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