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जीवन-दृष्टि के परिवर्तन में सम्यक्त्व की भूमिका
___। दुलीचन्द जैन साधना की आधार भूमि
जीवन के उत्कर्ष में सम्यक्त्व, जिसे सम्यग्दर्शन भी कहते हैं, का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मनुष्य की मुक्ति के मार्ग का विवेचन करते हुए भगवान् महावीर ने कहा कि सम्यग्दर्शन मोक्ष की प्रथम सीढ़ी है। दर्शन, ज्ञान और चारित्र को रत्नत्रयी कहा गया है। इसमें प्रथम है - सम्यग्दर्शन । पञ्चास्तिकाय में कहा है
धम्मादीसदहणं, सम्मत्तं णाणमंगपव्वगदं।
चिट्ठा तवंसि चरिया, ववहारो मोक्खमगो त्ति ।। पंचास्तिकाय, १६० .. अर्थात् धर्म आदि का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। अंगों और पूर्वो का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है । तप में प्रयत्नशीलता सम्यक्चारित्र है। यह व्यवहार मोक्षमार्ग है।
दर्शन या श्रद्धा साधना की आधार-भूमि है। दर्शन का अर्थ है श्रद्धा, निष्ठा। स्वामी विवेकानन्द ने कहा - "प्राची धर्म कहते थे कि वह व्यक्ति नास्तिक है जिसे ईश्वर में विश्वास नहीं है, लेकिन नया धर्म कहता है कि वह व्यक्ति नास्तिक है जिसे अपने आप पर विश्वास नहीं है।" लेकिन श्रद्धा अंध श्रद्धा नहीं होनी चाहिये। श्रद्धा या दर्शन सम्यक् हो, सही हो। जब तक मनुष्य की दृष्टि सही नहीं है, उसकी सृष्टि सही नहीं हो सकती।
श्रद्धा के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं होता। श्रद्धा साधना में आनन्द जगाती है, कार्य को रसमय बनाती है। आप जो कुछ कर रहे हैं, उस कर्म में आपकी श्रद्धा है, तो उसयों आपको अवश्य रस मिलेगा, आनन्द का अनुभव होगा। उपाध्याय अमर मुनिजी के शब्दों में - “मेरे दृष्टिकोण से कर्म से पहले कर्म के प्रति श्रद्धा जगनी चाहिये । यदि मैं आपसे पूछू - अहिंसा पहले होनी चाहिये या अहिंसा के प्रति श्रद्धा पहले होनी चाहिये? सत्य पहले हो या सत्य के प्रति श्रद्धा पहले हो? तो आप क्या उत्तर देंगे? बात अचकचाने की नहीं है और हमारे यहां तो बिल्कुल नहीं, चूंकि यहां तो पहला पाठ श्रद्धा का ही पढ़ाया जाता है। स्पष्ट है कि अहिंसा तभी अहिंसा है जब उसमें श्रद्धा है। सत्य तभी सत्य है, जब उसमें श्रद्धा है। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि यदि अहिंसा में श्रद्धा-निष्ठा नहीं है, तो वह अहिंसा एक पॉलिसी या कूटनीति हो सकती है, परन्तु वह जीवन का सिद्धान्त एवं आदर्श कभी नहीं बन सकती। " (पन्ना समिक्खए धम्मं, प्रथम पुष्प, पृष्ठ १३)
सम्यग्दर्शन की व्याख्या करते हुए कहा गया कि “तत्त्वार्थ-श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् " अर्थात् पदार्थों के (तत्त्वों के) स्वरूप को सही रूप से जानना और उन पर श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन कहलाता है। स्पष्ट है कि धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है। अगर व्यक्ति के मन में धर्म, आत्मा, परमात्मा, गुरु व धर्मग्रन्थों के प्रति अटूट श्रद्धा नहीं है तो उसे धर्म का सही स्वरूप कभी समझ में नहीं आयेगा। श्रीमती सिन्कलेयर
* जैन साहित्यरत्न,मन्त्री जैनविद्या अनुसंधान प्रतिष्ठान,मद्रास
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