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सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार उसे अज्ञान की संज्ञा दी गई है। वैदिक दर्शन में जिसे अविद्या के नाम से पुकारा गया है, जैन दर्शन में उसे 'अज्ञान' के नाम से कहा गया। ज्ञान और अज्ञान या विद्या और अविद्या का जो अंतर है वह केवल पात्र-भेद का अंतर है, दृष्टि का अंतर है।
सम्यक् दृष्टियुक्त ज्ञान को 'ज्ञान' और मिथ्यादृष्टियुक्त ज्ञान को 'अज्ञान' कहा जाता है। ज्ञान.वही है पर दृष्टि भेद से वही ज्ञान 'अज्ञान' बन जाता है। एक शराब की खाली बोतल में किसी ने मधु डाल दिया, पर चूंकि बोतल पर लेबल शराब का लगा है अत: दूसरे आदमी उसे शराब ही समझेंगे, मधु नहीं। ऊंचा से ऊंचा तत्त्व भी तुच्छ के पास आ जाने से तुच्छ कहलाता है वैसे ही ज्ञान भी मिथ्यादृष्टि की कुसंगत में आ जाने पर कुत्सित होकर 'अज्ञान' की संज्ञा से जाना जाता है । (प्रवचनाधारित)
-जैन विश्वभारती, लाडनूं
सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के ज्ञान में भेद शंका-सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के जानने में क्या अंतर है ?
समाधान-सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के जानने में जो अन्तर कहा गया है वह वस्तु स्वरूप के विश्लेषण में कहा गया है। बाह्यदृष्टि दोनों की एक होने पर भी विचारधारा में बड़ा अन्तर रहता है। यह थोड़े ही है कि उन्मत्त पुरुष की विचारधारा सदा विपरीत ही रहती है, उसकी विचारधारा सुनिश्चित न होने के कारण भी जैसे मिथ्या मानी जाती है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि की भी विचारधारा यथार्थता की ओर अस्थिर रहा करती है। अत: वह मिथ्या मानी जाती है, सम्यक् नहीं तथा एक की विचारधारा संसाराभिमुख होती है जबकि दूसरे की विचारधारा मोक्षाभिमुख। मोक्षाभिमुख विचारधारा में समभाव और आत्मविवेक होता है। इसलिये सम्यग्दृष्टि आत्मा अपने ज्ञान का उपयोग समभाव की पुष्टि और आत्म जागृति में ही करता है, सांसारिक विषयवासना की पुष्टि में नहीं। मिथ्यादृष्टि की विचारधारा इससे विपरीत होती है। यही कारण है कि सम्यग्दृष्टि का ज्ञान चाहे कितना भी अल्प हो वह सच्चा ज्ञान माना जाता है और संसाराभिमुख मिथ्यादृष्टि का ज्ञान लौकिक दृष्टि से चाहे कितना भी विपुल क्यों न हो, वह मिथ्याज्ञान ही माना जाता है। उन्मत्त पुरुष के ज्ञान में यही तो होता है कि वह जानता हुआ भी सत्य असत्य के अन्तर से उन्मत्तता के कारण (विचारशून्य होने से) बेभान रहा करता है। उदाहरणार्थ, प्रत्येक वस्तु अनेकात्मक है तथापि मिथ्यादृष्टि उसे अनेकात्मक होने में या तो संदेह करता है या उसे मानता ही नहीं है। मिथ्यादृष्टि की आत्मा में वस्तु-स्वरूप का चिन्तन करने में स्वरूप-विपर्यास, भेदाभेद-विपर्यास और कारणविपर्यास होते हैं जिससे वह मिथ्याज्ञान के कारण पदार्थों के स्वरूप, कारण और भेदाभेद का ठीक तरह से कभी भी निर्णय नहीं कर पाता, जबकि सम्यग्दृष्टि की आत्मा में ये नहीं होते हैं। इसलिए वह वस्तु का स्वरूप, भेद, कारण आदि का यथार्थ ज्ञान कर लेता है।
-आचार्य श्री घासीलाल जी म.सा.
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