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________________ सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार २६९ स्टीवेंसन एक अंग्रेजी महिला थी। उन्होंने एक बहुत ही शोधपूर्ण ग्रन्थ लिखा है - "The heat of Jainism" अर्थात् जैन धर्म का हृदय। यह ग्रन्थ जैन धर्म की बारीकियों का वर्णन करता है। लेकिन जैन धर्म में उनकी आंतरिक श्रद्धा नहीं होने के कारण उन्होंने इसी ग्रन्थ के अंत में एक अध्याय लिखा - "The empty heart of Jainism" अर्थात् जैन धर्म का शुष्क हृदय। इसमें उन्होंने लिखा कि जैन धर्म अव्यावहारिक व दमनपूर्ण है, अहिंसा एवं शाकाहार का पालन करना असम्भव है । वे पूज्य आचार्य आत्मारामजी महाराज से भी मिलीं तथा उनसे काफी वार्ताएं की। आचार्य श्री ने उनसे कहा कि तुम धर्म को आचरण में लाने का प्रयत्न करो। पर वे नहीं कर सकीं। आचार्य प्रवर से सम्पर्क के दिनों में भी उन्होंने सिगरेट व शराब नहीं छोड़ी। अत: श्रद्धा के अभाव में वे जैन धर्म का मर्म नहीं समझ सकीं। ___ यदि सम्यग्दर्शन की किरण भी जीवन-क्षितिज पर चमक उठती है, तो गहन गर्त में गिरी हुई आत्मा का भी उद्धार होने में समय नहीं लगता। धर्म का मूल है - सम्यक्त्व या जीवन का सही दृष्टिकोण । कर्म, ज्ञान, तप आदि का तभी तक महत्त्व है जब तक कि हमारे हृदय में सम्यक्त्व ज्योतिर्मान है। नहीं तो उन क्रियाओं का कोई फल नहीं मिलता। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के जीवन की एक घटना है। एक योगी उनके पास आया। कठोर तपस्या एवं साधना द्वारा उसने अनेक सिद्धियां प्राप्त कर ली थी। उसने कहा - "मैं गंगा नदी को उसके ऊपर चल कर पार कर सकता हूं।” श्री रामकृष्ण ने कहा - "तुम्हारी सारी साधना निरर्थक है। जो कार्य एक व्यक्ति चार आने देकर कर सकता है, उसमें तुमने अपने जीवन की साधना को लगाया। तुम्हें साधना द्वारा आत्मा व परमात्मा का साक्षात्कार करना चाहिये था।" सम्यग्दर्शन का एक अर्थ है - देव, गुरु और धर्म में सच्ची श्रद्धा । जिसने राग और द्वेष पर विजय प्राप्त कर ली है, उसे ही देव कहते हैं, वीतराग कहते हैं। जिसने धर्म को अपने जीवन में आचरित किया है उसे गुरु कहते हैं। एक महापुरुष ने गुरु के निम्न लक्षण बताये हैं (१) जो आत्मनिष्ठ है और आत्मा का ज्ञान करा सकता है। (२) जिसकी जिह्वा उसके वश में है। (३) जिसे क्रोध नहीं आता। (४) जो अकिञ्चन है - जिसमें लोभ की वृत्ति नहीं है। धर्म मात्र पूजा या उपासना की पद्धति नहीं है, प्रत्युत वह आत्मा का सहज स्वभाव है। दशवैकालिकसूत्र, १.१ में धर्म का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहा गया है- : “धर्म उत्कृष्ट मंगल है। अहिंसा, संयम और तप उसके लक्षण हैं।" देव, गुरु और धर्म पर सच्ची आस्था रखने से मनुष्य के हृदय में श्रद्धा जागृत होती है। श्रद्धारूप सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर मनुष्य को जीवन का सही अर्थ ज्ञात होता है तथा उसका सम्पूर्ण जीवन प्रकाशमय हो जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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