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________________ २६२ जिनवाणी-विशेषाङ्क और तर्क के उचित एवं विवेकपूर्ण समन्वय से ही हम यथार्थ-बोध के अधिकारी बन सकते हैं। __जहां कुछ लोग एकान्त तर्कवाद की हिमायत करते हैं, कुछ ऐसे भी हैं जो एकान्त श्रद्धावादी होते हैं। मगर विवेकविकल श्रद्धा अन्धश्रद्धा है और ऐसी श्रद्धा में चैतन्य नहीं होता। अन्धश्रद्धा के द्वारा हेय-उपादेय का, ग्राह्य-अग्राह्य का बुद्धिसंगत अन्तर नहीं समझा जा सकता। उसमें दंभ, आडंबर एवं पाखंड को देखकर फिसल जाने की संभावनाएं बनी रहती हैं, किन्तु जो कसौटी पर कस कर सत्य को स्वीकार करता है, वह प्रतारित नहीं किया जा सकता, वह सभी समस्याओं और जटिल से जटिल प्रश्नों का उचित समाधान करता हुआ अपने मार्ग पर स्थिर रहता है । ___ इस प्रकार जीवन में तर्क की भी आवश्यकता है, किन्तु भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित तर्क-प्रज्ञा और आज के एकान्त बुद्धिवादी मानव के तर्क में दिन-रात का अन्तर है। आधुनिक बुद्धिवादी श्रद्धा के क्षेत्र को और महत्त्व को स्वीकार नहीं करता। वह तर्कातीत तत्त्वों पर भी तर्क के तीर छोड़ता है और जब वे लक्ष्य पर नहीं पहुंचते तो उनके अस्तित्व को ही अस्वीकार कर बैठता है। वह श्रद्धागम्य प्रदेश को बुद्धिगम्य बनाने की निष्फल चेष्टा करता है और धोखा खाता है। उचित यही है कि जीवन में श्रद्धा और तर्क का समुचित समन्वय हो । जो ज्ञेय तर्क की परिधि के अन्तर्गत हों, उन्हें तर्क की तुला पर तोला जाय और जो तर्क की पहुँच से बाहर हैं, जो साधनाजनित लोकोत्तर ज्ञान के द्वारा ही जाने जा सकते हैं, उन पर अविचल श्रद्धा रखी जाय और आप्त पुरुषों के उपदेश को प्रमाणभूत मानकर चला जाय। इस प्रकार के समन्वय से जीवन में जागृति आती है और आन्तरिक बल की वृद्धि होती है। जिस तर्क के पीछे श्रद्धा का बल होता है, वह सम्यक्त्व का आभूषण बनता है और जिसके पीछे श्रद्धा का बल नहीं, वह सम्यक्त्व का दूषण है। गौतमस्वामी के हृदय में शंका उत्पन्न होती थी, पर उस शंका के पीछे आस्था की अविचल भूमिका थी, श्रद्धा के दिव्य दीपक का प्रकाश जगमगाता रहता था। शंका का समाधान प्राप्त होने पर उनके अन्तरतल से अनायास ही यह ध्वनि निकल पड़ती थी 'सदहामि णं भंते ! निग्गथं पावयणं, पत्तियामि णं भंते ! निग्गथं पावयणं, रोएमिणं भंते ! निग्गथं पावयण, तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते! इच्छियमेयं शंते ! पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छियपडिच्छियमेलं ते! से जहेयं तुब्भे वयह ।'-उपासक, अ.१, सू. १२ अर्थात्-भगवन् ! मै निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूं। भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर प्रतीति करता हूं। भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन पर रुचि करता हूं। भगवन् ! निर्ग्रन्थप्रवचन तथ्य है, अवितथ है, मुझे इष्ट है, अभीष्ट है, इष्टाभीष्ट है, जैसा आप कहते हैं वैसा ही है। यह है सच्चे साधक के हृदय के उद्गार । जहाँ इतनी गाढ़ श्रद्धा है, वहां Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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