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________________ २६१ सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार .. था, वे श्रमण भगवान् महावीर के श्री चरणों में पहुंचते और यथोचित प्रतिपत्ति के पश्चात् उस सन्देह को निवेदन करते थे। इस सम्बन्ध में शास्त्रों में गौतमस्वामी के लिए 'जायसंसए' 'संजायसंसए' और 'उपण्णसंसए' विशेषणों का प्रयोग किया गया है। प्रश्न यह है कि इस प्रकार का संशय क्या सम्यक्त्व के अतिचार की कोटि में है? क्या सम्यग्दर्शन का विघातक है ? इस प्रश्न का उत्तर 'नहीं' में ही दिया जाएगा। शंका दो प्रकार की होती है-श्रद्धामूलक और अश्रद्धामूलक । जिस शंका के गर्भ में श्रद्धा छिपी होती है और जो केवल जिज्ञासा के रूप में ही व्यक्त की जाती है, वह सम्यक्त्व का अतिचार नहीं है। मगर अश्रद्धामूलक शंका की बात निराली है। उसमें जिज्ञासा नहीं, अविश्वास ही प्रधान होता है। अतएव वह समकित का अतिचार है। श्रद्धा और तर्क का समन्वय __ कुछ लोग समझते हैं कि श्रद्धा एक प्रकार की मानसिक सुषुप्ति है। उसमें बुद्धि एवं विचार का अवकाश नहीं है। जो जी में आया, मान लिया और उसी से चिपट गये। इस प्रकार की श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति कैसे हो सकती है? किन्तु जैनधर्म ऐसी श्रद्धा का समर्थन नहीं करता। उसकी सस्पष्ट उद्घोषणा है- पन्ना समिक्खए धम्म' अर्थात् प्रज्ञा से, तर्क बुद्धि से, धर्म की परीक्षा करनी चाहिए। तथ्य यह है कि इस विराट् विश्व में असीम विविधता है। सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल तत्त्वों के समूह का नाम जगत् है। इसमें बहुत से तथ्य ऐसे हैं जो हमारी बुद्धि की परिधि में आते हैं तो बहुत से ऐसे भी हैं जो अत्यन्त सूक्ष्म एवं रहस्यमय होने के कारण हमारी मति द्वारा ग्राह्य नहीं हैं। उन्हें समझने के लिए जिस अलौकिक दृष्टि की आवश्यकता है, वह हमें प्राप्त नहीं है। उसे प्राप्त करने के लिए जितनी साधना अपेक्षित है, वह हमारे जीवन में आई नहीं है। मनुष्य अपने बुद्धि-वैभव का कितना ही अभिमान करे, परन्तु वास्तव में उसका दायरा अत्यन्त संकीर्ण है। उसकी इन्द्रियाँ, जिनके बल पर वह इतराता है, कितना-सा जान पाती हैं । रहा मन सो वह बेचारा इन्द्रियों का ही अनुगामी है। ऐसी स्थिति में अगर कोई पुरुष यह मान बैठता है कि मैंने सभी कुछ जान लिया है और जो नहीं जाना, वह है ही नहीं. तो वह दया का पात्र है। ___ इस प्रकार का अहंकार उसकी और समग्र मानवजाति की प्रगति में बाधक बनता है। अपने अनन्त की विनम्र स्वीकृति से मनुष्य की प्रगति की संभावना की जा सकती है, मगर जो मनुष्य अपने अत्यल्प ज्ञान को ही पराकाष्ठा का ज्ञान मान लेता है, वह अपनी प्रगति की समग्र संभावनाओं में पलीता लगा देता है। __अभिप्राय यह है कि जगत के जो तत्त्व बद्धिगम्य हैं, उन पर तर्क से विचार करना उचित है। मगर जो रहस्यमय तत्त्व मानवमति से अगोचर हैं, उनके विषय में आप्त . पुरुषों के कथन पर श्रद्धा रख कर ही चलना चाहिए। हाँ, युक्ति, प्रमाण और तर्क के द्वारा हमें आप्तता के विषय में अवश्य आश्वस्त हो लेना चाहिए। इस प्रकार श्रद्धा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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