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________________ २६० ................... जिनवाणी-विशेषाङ्क हे आनन्द ! जीव-अजीव के स्वरूप को जानने वाले श्रमणोपासक को सम्यक्त्व के पाँच अतिचार जानने चाहिए, किन्तु उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे अतिचार हैं-(१) शंका (२) कांक्षा (३) विचिकित्सा (४) परपाषण्डप्रशंसा और (५) परपाषण्डसंस्तव। ... यह पाँच अतिचार सम्यक्त्व में मलिनता उत्पन्न करते हैं। यदि प्रारंभ में ही इन्हें न रोका जाय तो ऐसी स्थिति आ सकती है कि बढ़ते-बढ़ते ये दोष समूचे सम्यक्त्व को भी निगल जाएं । अतएव सम्यग्दृष्टि को यह सावधानी रखनी चाहिए कि जीवन में इनका प्रादुर्भाव ही न होने पाए। (१) शंका शंका जीवन की दुर्बलता है। इसके रहते जीवन का सम्यक् रूप से विकास नहीं हो पाता है। लड़खड़ाते कदमों से कोई कितना चल सकता है? जब मंजिल दूर हो और बहुत ऊंचाई पर हो, तब दृढ़ कदम ही काम दे सकते हैं। शंका संकल्प में दृढ़ता नहीं आने देती। संकल्प की दृढ़ता के बिना लक्ष्य की पूर्ति के लिए अपेक्षित आवश्यक आन्तरिक बल प्राप्त नहीं होता और बल के अभाव में साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती। अतएव यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि हम अपने साध्य और साधनों पर पूरा विश्वास लेकर चलें और अन्तःकरण के किसी भी प्रदेश में शंका को अवकाश न दें। जब तक जिनोक्त तत्त्वों पर शंका बनी रहेगी, जीव अध्यात्मसाधना के पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता। शंका विवेक शक्ति और विश्वास को नष्ट करने के लिए कुठार से कम नहीं है। वह सम्यक्त्व को नष्ट करती है। श्रीकृष्ण ने वीर अर्जुन को, कुरुक्षेत्र के मैदान में संशय से होने वाली हानि प्रकट करते हुए कहा था-'संशयात्मा विनश्यति' जो आत्मा संशय में पड़ा रहता है, उसका विनाश होता है। द्विविध शंका इस प्रसंग पर एक बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। जब हम जैनागमों के पन्ने पलटते हैं तो सूर्य के समान चमकती हुई दो महान् विभूतियां अनायास ही हमारी दृष्टि के समक्ष उपस्थित हो जाती हैं एक प्रश्नकार के रूप में और दूसरी उत्तरदाता के रूप में। इन्हें हम गौतम स्वामी और भगवान् महावीर के रूप में पहचानते हैं। गौतम स्वामी के ३६ हजार प्रश्न तो अकेले भगवतीसूत्र में ही अंकित हैं। इसके अतिरिक्त भी आगम-साहित्य का अधिकांश भाग इनके प्रश्नोतरों के रूप में है। प्राचीन आचार्यों ने तीर्थंकर के प्रवचनों को दो भागों में विभक्त किया है-पुट्ठवागणा अर्थात प्रश्न उपस्थित होने पर उसके समाधान के रूप में की जाने वाली विवेचना और अपुट्ठवागणा अर्थात् बिना पूछे ही की जाने वाली प्ररूपणा। आपको ज्ञात होना चाहिए कि भगवान् महावीर स्वामी की अपृष्टव्याकरणा की अपेक्षा पृष्टव्याकरणा अधिक है। गौतमस्वामी के चित्त में, जब कभी किसी तत्त्व के विषय में, सन्देह उत्पन्न होता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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