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________________ जीवन-दृष्टि की मलिनताएँ म उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म.सा. प्रस्तुत लेख का संकलन स्व. उपाध्यायप्रवर की पुस्तक 'साधना का राजमार्ग' से । किया गया है। इस पुस्तक का प्रकाशन सम्यग्ज्ञान प्रचारक मंडल, जयपुर द्वारा १९६२ ई. में किया गया था। इसमें सम्यग्दर्शन के पांच अतिचारों को जीवनदृष्टि की मलिनताओं के रूप में प्रस्तुत किया गया है। -सम्पादक ___ 'अतिचार' शब्द का अर्थ है-मर्यादा का उल्लंघन करके बर्ताव करना। अभिप्राय यह है कि मनुष्य ने अपने अनियंत्रित जीवन को नियंत्रित करने के लिए जो मर्यादा या व्रत-नियम अंगीकार किया है और उसी के अनुसार जीवन-व्यवहार करने का संकल्प किया है, उसका आंशिक रूप में भंग हो जाना अतिचार है। आंशिक रूप में भंग हो जाने का भी एक विशेष अभिप्राय है। जैनाचार्यों ने स्वीकृत व्रत के भंग को चार कोटियों में बांटा है-अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार । व्रतभंग की बुद्धि उत्पन्न करना अतिक्रम है और उसके लिए साधन-सामग्री जुटाने का प्रयास करना व्यतिक्रम है। व्रती यह समझता हो कि मैं अपना व्रत भंग नहीं कर रहा हूं, इस क्रिया से मेरा व्रत खण्डित नहीं हो रहा है, किन्तु उसकी वह क्रिया वास्तव में व्रत की मर्यादा से बाहर हो और उससे व्रत में किसी प्रकार की त्रुटि उत्पन्न होती हो, तो उसकी वह क्रिया अतिचार की कोटि में आती है। इससे भी आगे बढ़कर जब व्रती जान-बूझकर, व्रत की रक्षा की भावना से निरपेक्ष होकर कोई व्रतविरुद्ध आचरण करता है, तब वह आचरण 'अनाचार' की कोटि में परिगणित होता है। __ यद्यपि यह चारों कोटियां सामान्य रूप से अतिचार कहलाती हैं, तथापि व्रतभंग की तरतमता को विशेष रूप से समझने के उद्देश्य से इनका विभागोपदर्शन किया जाता है। साधक की नैतिकता सर्वतोभावेन व्रतसंरक्षण में ही है तथापि कदाचित् भ्रान्ति से, कदाचित् प्रलोभन से, कदाचित् क्रोध या द्वेष से, और कदाचित् परिस्थिति की विषमता से, ऐसा अवसर आ जाता है कि व्रत की पूरी तरह रक्षा नहीं हो पाती और ऐसा कार्य हो जाता है जो व्रत की सीमा का कुछ उल्लंघन करता है। वही अतिचार कहलाता व्रत के उल्लंघन के तारतम्य एवं प्रकार किसी नियत संख्या में आबद्ध नहीं हैं। वे अनियत और अगणित हैं, तथापि स्थूल रूप में उनका ऐसा वर्गीकरण कर दिया गया है, जिनमें सभी अतिक्रमणों का समावेश हो जाय। सम्यग्दर्शन के अतिचार पांच हैं। यहां उन्हीं पर संक्षेप में विचार करना है। श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमणोपासक आनन्द को लक्ष्य करके कहा “एवं खलु आणंदा, समणोवासएणं अभिगयजीवाजीवेणं. सम्मत्तस्स पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा, न समायरियव्या। तंजहा संका, कंखा, विइगिच्छा, परपासंडपसंसा, परपासंडसंथवे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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