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________________ सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार २६३ सम्यक्त्व में न्यूनता या मलीनता के लिए कोई अवकाश नहीं हो सकता। इस प्रकार की मनोभमिका की विद्यमानता में प्रस्तुत की जाने वाली शंकाएँ सम्यग्दर्शन की बाधक नहीं, वर्द्धक ही होती हैं। श्रद्धालुओं की शंकाएं, विषय को विशद और स्पष्ट करने के लिए होती हैं। गौतम स्वामी के प्रश्नों का यह सुपरिणाम है कि विराट आगम-साहित्य की अनमोल सम्पत्ति हमें विरासत में मिल सकी। (२) कांक्षा __सम्यग्दर्शन को मलिन बनाने वाला दूसरा अतिचार ‘कांक्षा' है। कांक्षा का सामान्य अर्थ है-इच्छा या अभिलाषा, किन्तु इस प्रसंग में कांक्षा शब्द का पारिभाषिक अर्थ ही ग्राह्य है। कांक्षा अतिचार का अभिप्राय है-पाखण्डियों के आडम्बर या दंभ से आकृष्ट होकर, अपने सच्चे आत्मशोधक पथ से विचलित होकर उनके पथ पर चलने की अभिलाषा जागृत होना, बहिर्मुख साधना से उत्पन्न हुई विभूतियों की चकाचौंध में । अपने आध्यात्मिक पथ से डिग कर उनकी ओर झुकने की मनोवृत्ति उत्पन्न होना। ___ मानव-मन अतीव चपल है। साधना के पथ पर चल पड़ने पर और अनेक प्रकार की साधनाओं द्वारा संभालने पर भी वह जल्दी वशीभूत नहीं होता। अनादिकाल संस्कार उस पर अपना रंग जमाये रहते हैं और उसे पथभ्रष्ट करने का अवसर देखते रहते हैं। साधक जरा भी असावधान हुआ और उन संस्कारों ने हमला किया। तत्काल संभल गया तो ठीक, अन्यथा कुशल नहीं। वे कुसंस्कार बलवत्तर होकर उसे गलत दिशा में ले जाते हैं। बड़े-बड़े तपस्वी और योगी भी इन कुसंस्कारों के वशवर्ती होकर अपने लक्ष्य को भूल कर लौकिक चमत्कारों और एषणाओं के प्रलोभन में पड़ जाते हैं। सांसारिक चमत्कार और स्वर्गीय सुख ही उनका ध्येय बन जाता है। ऐसी स्थिति में उनकी दशा उस कृषक के समान हो जाती है जो कठोर श्रम करके भी धान्य के बदले भूसा ही पाता है। यही कारण है कि भगवान् महावीर ने साधकों को सावधान करते हुए कहा था नो इहलोगट्ठयाए तवमहिटिज्जा नो परलोगट्टयाएं तवमहिडिज्जा, नो कित्तिवण्णसहसिलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, नन्नत्थ निज्जरठ्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा । दशवैकालिक, अ.९ साधक इहलोक संबंधी लाभ के लिए तप न करे, परलोक संबंधी लाभ के लिए , तप न करें, कीर्ति, यश या प्रशंसा के लिए तप न करे, तप करे एक मात्र कर्मनिर्जरा के लिए। कामना, अभिलाषा, मूर्छा, लोभ, आसक्ति, लोकैषणा आदि कांक्षा के अनेक रूप हैं। बड़ी कठिनाई यह है कि किसी कामना की पूर्ति के लिए प्रयत्न किया जाता है तो उसकी पूर्ति होते न होते अन्य अनेक कामनाएं उत्पन्न हो जाती हैं अथवा वही एक कामना भस्मासुर की तरह अपना स्वरूप विस्तार करती जाती है, ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ बढ़ता जाता है, बल्कि लाभ ही लोभ-वृद्धि का कारण बन जाता है जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्डई।-उत्तरा. अ.८ गा. १७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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