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________________ जिनवाणी- विशेषाङ्क १० वाला है। शेष सब कुछ धन-यौवन, गढ़-कोट- हवेली, बंगला-कार, कुटुम्ब - कबीला और काया- माया वस्तुतः बादल - छाया की तरह क्षणिक, अस्थिर, विनश्वर अर्थात् नहीं टिकने वाले हैं। इस प्रकार की वस्तु स्थिति में सदा टिकी रहने वाली वस्तु की सार-सम्हाल करने वाला व्यक्ति बुद्धिमान गिना जायगा । आप सब भी यह चाहते हैं कि आपकी गणना बुद्धिमानों में की जाय । तो जब केवल आत्मा ही टिकने वाला है, तो नहीं टिकने वाली सब नश्वर वस्तुओं की चिन्ता छोड़ आत्मा के कल्याणकारी, आत्मा के हित की साधना करने वाले काम करो । जो ठहरने वाला नहीं है, जिसे आप स्वयं टिकने वाला नहीं मानते उस शरीर के लिये तो आप आज तक बहुत कुछ करते रहे हो । सदा टिके रहने वाले आत्मा के कल्याण की भी अब तो कुछ चिन्ता करो । आत्महित के कार्यों की ओर अभिमुख होने एवं उनमें प्रवृत्ति करने के लिये प्रतिपल तैयार रहो । दर्शनविशुद्धि: प्रथम सोपान अपने दर्शन को निर्मल कीजिये, श्रद्धा एवं विश्वास को विशुद्ध कीजिये । क्योंकि दर्शन-विशुद्धि ही साधना का प्रथम सोपान है, सम्यग्दर्शन से ही साधना का शुभारम्भ होता है । दर्शन विशुद्ध रहने पर ही वास्तविक तत्त्वज्ञान, सच्चा तत्त्वबोध होगा । तत्त्वज्ञान से ही चेतन अर्थात् स्वतत्त्व की और जड़ अर्थात् परतत्त्व की पहचान होगी । यदि आपने स्व और पर के स्वरूप को यथातथ्य रूप से समझकर हृदयंगम कर लिया तो समझ लीजिये कि आपको सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो गई, आप सम्यग्दृष्टि भव्य जीव बन गये और सम्यग्दृष्टि बन जाने के परिणामस्वरूप निश्चित रूप से मोक्ष के अधिकारी बन गये, क्योंकि सम्यग्दृष्टि बन जाने के पश्चात् जीव अर्द्ध पुद्गल परावर्तन जितने काल के अन्दर-अन्दर सुनिश्चित रूप से सिद्ध बुद्ध-मुक्त हो जाता है 1 आत्म जागृति जब तक मनुष्य का सम्पूर्ण विश्वास आत्मा के अन्दर पैदा नहीं होता, तब तक वह कल्याण मार्ग की साधना में सही रूप से आगे नहीं बढ़ सकता । • श्रद्धा की दृढ़ता न होने से ही मनुष्य अनेक देवी-देवता, जादू-टोना और अँधविश्वास में भटकता रहता है। अगर सम्यग्दर्शन हो तो इधर-उधर चक्कर खाने की जरूरत नहीं होती । • हमारे धर्म का हमारे व्रत, नियम एवं साधना का मूल सम्यग्दर्शन है 1 जहाँ राग है वहा मन की वृत्तियों का लगाव है, जहाँ लगाव है वहां बन्धन है और जहाँ बन्धन है वहाँ दुःख है 1 दुःखमुक्ति का रास्ता यह है कि हित-मार्ग को जानो, पहचानो, पकड़ो और तदनुकूल आचरण करो । - आचार्य श्री हस्ती Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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