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प्रवचन
श्रद्धा बिन सब सून
द्र आचार्यप्रवर श्री हीराचन्द्र जी म.सा. सम्यग्दर्शन के विविध पक्षों पर श्रद्धेय आचार्यप्रवर के विचारों को यहां उनके प्रवचनों के आधार पर ५ शीर्षकों में संकलित-सम्पादित किया गया है। आचार्यप्रवर ने धार्मिक शिक्षण शिविर पीपाड़ (मई, १९९६) के समय अपने व्याख्यानों में सम्यग्दर्शन का विस्तृत विवेचन किया था, जिसे श्री पुखराज मोहनोत ने संकलित करने का श्रम किया। उसका ही सम्पादित कुछ अंश सारांश के रूप में यहां पर प्रस्तुत किया जा रहा है। -सम्पादक
सम्यग्दर्शन का अर्थ 'सम्यग्दर्शन' में दर्शन शब्द विद्यमान है। 'दर्शन' शब्द का प्रयोग कई अर्थों में प्रचलित है। दर्शन के लिए प्राकृत-साहित्य में 'दंसण' शब्द का प्रयोग होता है। संस्कृत में 'दर्शन' शब्द की निष्पत्ति ‘दृश्' धातु से 'ल्युट' प्रत्यय लगने पर हुई है। 'दर्शन' शब्द के सम्प्रति निम्नाङ्कित अर्थ प्रचलित हैं
(१) दृश् धातु का अर्थ होता है-देखना (देखने की क्रिया करना)। अतः ल्युट् प्रत्ययान्त 'दर्शन' शब्द का सामान्य अर्थ है-देखना (संज्ञा)। इस देखने के अन्तर्गत नेत्र से देखना, अनुभव से देखना आदि सभी का समावेश हो जाता है।
(२) दर्शन का एक अर्थ मान्यता या सिद्धान्त भी है। जैनदर्शन, बौद्धदर्शन, न्यायदर्शन आदि पदों में दर्शन का यही अर्थ अभीष्ट है । फिलासॉफी (Philosophy) के अर्थ में जो 'दर्शन' शब्द प्रचलित है वह भी विचार, मत या सिद्धान्त के अर्थ में ही स्वीकृत है । इसका एक अर्थ दृष्टिकोण भी है जो भी फिलासॉफी को ही व्यक्त करता है।
(३) जैन दर्शन में 'दर्शन' एक पारिभाषिक शब्द है । इसके यहां दो अर्थ प्रचलित हैं। उनमें एक अर्थ है-सामान्य बोध। दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से जीव में जो दर्शनगुण प्रकट होता है वह 'सामान्यबोध' अर्थ का परिचायक है। यह 'दर्शन' ज्ञान के पूर्व होता है । दर्शनोपयोग एवं ज्ञानोपयोग के रूप में इनका क्रम निरन्तर चलता रहता है।
(४) 'दर्शन' का अन्य पारिभाषिक प्रयोग सम्यग्दर्शन के अर्थ में हुआ है। सम्यग्दर्शन का अर्थ है तत्त्वार्थों के प्रति श्रद्धा। यहां श्रद्धा कोई अंधविश्वास एवं अंधश्रद्धा का द्योतक नहीं है, अपितु जीवादि तत्त्वों को समझकर श्रद्धा करने का द्योतक है। इसमें अंध श्रद्धा एवं अंधविश्वास का कोई स्थान नहीं है। श्रद्धा को आस्था, विश्वास एवं प्रतीति के नाम से भी जाना जाता है। श्रद्धा में आत्मभाव एवं स्व का संवेदन होता है। यह मात्र बौद्धिक स्तर का विश्वास नहीं है, यह तो अन्तःकरण से होने.वाली विवेकयुक्त आस्था है। श्रद्धा अर्थ-सम्यग्दर्शन के विभिन्न रूपों में 'श्रद्धा' अर्थ की प्रधानता है। बिना आस्था, बिना विश्वास या बिना श्रद्धा के आचरण सम्यक् नहीं बन पाता। आस्था एवं श्रद्धा भी किस पर हो? इसके लिए दो प्रकार से समाधान मिलते हैं- १. जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष नामक नवतत्त्वों के स्वरूप
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