SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन २४७ सम्यग्दर्शन वह भूमिका है कि जिसके आधार पर मोक्ष का भव्य प्रासाद बन सकता है। भूमि के अभाव में लक्षाधिपति भी घर का मकान नहीं बना सकते । बम्बई जैसे विशाल नगरों में सैंकडों-हजारों लखपति, बिना घरबार के दूसरे के किराये के मकान में रहते हैं। क्योंकि उनके पास भूमि नहीं है। भूमि मिल जाय, तो मकान वे खड़ा कर सकते हैं। इसी प्रकार कई मिथ्यादृष्टि जीव, सदाचार का पालन करते हुए भी सम्यग्दर्शन रूपी भूमि के अभाव में बिना घर के किरायेदार हो रहे हैं। ____ जिसके पास भूमि है, वह अर्थाभाव से वर्तमान में भवन-निर्माण नहीं कर सकता, तो भविष्य में कर लेगा। भूमि मिलने पर लोग रम्य पर्वतों पर भी भव्य कोठियां बना लेते हैं। इसी प्रकार जिसके पास सम्यग्दर्शन रूपी भूमिका है वह विरति रूपी धन के अभाव में आज भवन नहीं बना सकता, तो भविष्य में बना लेगा। भूमि रही, तो भवन बन जायेगा। इसलिए सबसे पहले सम्यग्दर्शन रूपी भूमि प्राप्त करनी चाहिए और प्राप्त भूमि का रक्षण करना चाहिए। सम्यग्दर्शन के पोषक तत्त्व हैं-१. परमार्थ संस्तव और २. परमार्थ सेवन । परमार्थसंस्तव–परम अर्थ है-मोक्ष। मोक्ष प्राप्त परमात्मा-अरिहत, सिद्ध, मोक्ष-साधक आचार्यादि श्रमण और मोक्षमार्ग-श्रुतचारित्रधर्म-निर्ग्रन्थधर्म का परिचय करना, इन्हें समझना जीवादि तत्त्वों का अभ्यास करना, उन पर श्रद्धा करना और उन पर प्रीति रखते हुए.प्रशंसा करना परमार्थसंस्तव है। ___ परमार्थ सेवन-मोक्षप्राप्त देव, मोक्ष के सर्व-साधक गुरु की सेवा करना परमार्थ-सेवन है। ___ इन दो पोषक तत्त्वों से सम्यक्त्व बल को बढ़ाना-पुष्ट करना और बलवान बनाना चाहिए। सम्यग्दर्शन का रक्षण करने वाले तत्त्व हैं-१. व्यापन्न वर्जन और २. कुदर्शन वर्जन। ___ व्यापन्न वर्जन-सम्यग्दर्शन का वमन करके जो कुदर्शनी बने, उन दर्शन-भ्रष्टों की संगति से दूर रहना। कुदर्शन वर्जन-जिन दर्शनों में मिथ्यात्व का अंश हो, जो सराग प्रवर्तकों द्वारा निर्मित, छद्मस्थों द्वारा प्रचारित तथा आरंभ-परिग्रह से युक्त हैं, संसार-साधक हैं, जिनमें सावद्यता का अंश भी है, उनकी संगति से दूर रहना। परमार्थसंस्तव और परमार्थसेवन, ये दो नियम सम्यग्दर्शन के पोषक हैं और व्यापन्नवर्जन तथा कुदर्शन वर्जन-ये दो रक्षक नियम हैं। इनका पालन अत्यावश्यक है। जैसे-पोषण के अभाव में शरीर दुर्बल हो जाता है, शक्ति कम हो जाती है और अन्त में मृत्यु की मार पड़ जाती है, वैसे ही सम्यक्त्व-पोषक तत्त्वों से वंचित रहने पर दर्शन-भ्रष्ट होने का प्रसंग प्राप्त होता है-'नन्दमनिहार' वत् । व्यापन्न-कुदर्शन संस्तव तो चोर-डाकू के सहवास के समान है। कुदर्शनी से भी बढ़कर व्यापन्न-दर्शन-भ्रष्ट भयानक होते हैं। ये दर्शन-भ्रष्ट दूसरों को कम, किन्तु घर को अधिक भ्रष्ट करते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy