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________________ २४८ जिनवाणी- विशेषाङ्क प्रथम निह्नव जमाली से लगा कर अब तक का इतिहास इस बात की साक्षी दे रहा I कुछ कुतर्की लोग कहा करते हैं कि 'किसी की संगति से या किसी का मन्तव्य सुनने में हानि ही क्या है ? क्या वह या उसका विचार जबरदस्ती हमारे चिपक जावेंगे ? हमारा सम्यग्दर्शन इतना कमजोर है कि उनकी छाया से ही नष्ट हो जायगा ?' वे इस प्रकार के कुतर्क उपस्थित करते हैं। उन्हें सोचना चाहिए कि उनका यह तर्क हमारे सामने नहीं, सर्वज्ञ भगवंतों के सिद्धान्त के सामने है । वे अपने तर्क से उस सिद्धान्त की अवगणना करते हैं । देवाधिदेव जिनेश्वर भगवंतों की अवगणना करते है । उनके सम्यक्त्व की दशा तो यह तर्क ही बतला रहा है । 1 I दूसरी बात यह भी है कि संसर्ग से गुण-दोष उत्पन्न होते हैं। जब चेचक, मीम्यादी बुखार, हैजा, प्लेग आदि रोगों का जोर होता है, तब स्वास्थ्य विभाग से जनता को चेतावनी मिलती है कि वे रोग से बचने के लिए रोगियों के संसर्ग से अपने को बचावें । टीका लगवावें, रोगी के बर्तन, बिछौने और वस्त्रों से भी सावधान रहें। उनके संसर्ग से आरोग्य नष्ट होकर रोग उत्पन्न होने का भय रहता है । उसी प्रकार दर्शन - भ्रष्टों की संगति से सम्यक्त्व में क्षति की प्रबल संभावना है । जिस प्रकार ब्रह्मचारी का स्त्री से सम्पर्क और चूहे का बिल्ली से संसर्ग घातक होता है, उसी प्रकार दर्शन - भ्रष्टों का संसर्ग सम्यग्दर्शनी के लिए घातक होता है । क्षयोपशम- सम्यक्त्व, उन्नत होकर क्षायिक भी हो सकती है और विनष्ट भी हो सकती है। इसके साथ खतरा लगा रहता है । इसलिए इसकी रक्षा करना आवश्यक है । आत्मा के लिए सम्यक्त्व महान् रत्न के समान है। इसे प्रयत्नपूर्वक प्राप्त करना और प्राप्त का रक्षण करना चाहिए। यह अनन्त संसार का अंत करने वाला है । एक बार अन्तर्मुहूर्त के लिए भी सम्यक्त्व का स्पर्श हो जाय, तो उस आत्मा की अवश्य मुक्ति होगी । यदि मिथ्यात्वमोह के उदय से यह रत्न छूट भी जाय और आत्मा फिर अनन्तानुबन्धी के चंगुल में फँस जाय, तो भी वह थोडी देर का प्रभाव, आत्मा को पुनः सम्यक्त्व प्राप्त करा कर मोक्ष में पहुँचाएगा ही । सम्यक्त्व के लुटेरे - मिथ्यात्व के कई रूप हैं । यदि मिथ्यात्व बीभत्स रूप में आवे, तो लोग सरलता से बच सकते हैं, जैसे- लोग परिचित एवं बदनाम चोर - डाकू से बचते हैं । किन्तु साहुकार के रूप में छुपे चोर और दयालु के वेश में छुपे घातक से बचना कठिन होता है । अच्छे समझदार कहाने वाले भी ठगा जाते हैं । कोई मित्र के रूप में आकर ठगता है, तो कोई सेवक, हितैषी, उपकारी, रक्षक तथा सहायक के रूप में । कोई धन का लोभ दिखाकर लूटता है तो कोई मोहिनी अप्सरा बन कर लूटती है । भोले जीव, भुलावे में आ कर लुट जाते हैं । इसी प्रकार मिथ्यात्व की भाषा, लेखन, हाव-भाव और प्रतिपादन शैली की मोहकता में सज्ज होकर आता है, तो श्रोता एवं पाठक के गले में सरलता से उतर जाता है । विष - मिश्रित मिठाई भी बडी मोहक बन कर पेट में पहुँचती है। किंपाकफल कितने मोहक थे, किन्तु परिणाम कितना घातक I Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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