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________________ सम्यग्दर्शन का रक्षण म रतनलाल डोसी सम्यग्दर्शन का विषय है-आत्मोद्धारक विषय को समझने की यथार्थ दृष्टि । जिस दृष्टि में आत्मा-अनात्मा में भेद, आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति, तथा परमात्मपद प्राप्त करने की साधना को यथार्थरूप में समझ कर विश्वास करने की क्षमता है, वही सम्यग्दृष्टि है। सम्यग्दृष्टि वही आत्मा हो सकती है जिसमें यह विश्वास हो कि(१) आत्मा का अस्तित्व है, अवश्य है, आत्मा है ही। इस दृश्यमान शरीर में आत्मा कथंचित् भिन्न है। शरीर, 'पर' है। मैं स्वयं आत्मा हूँ और मेरे जैसी अन्य अनन्त आत्माएँ भी हैं और अशरीरी परमात्मा भी है। (२) आत्मा सदाकाल शाश्वत है, अनादि-अपर्यवसित है। शरीर विनाशी है, आत्मा अविनाशी है। मृत्यु द्रव्य-प्राणों की होती है और पुनः नये प्राण और नया शरीर प्राप्त होता है, किन्तु आत्मा तो वही होती है। (३) आत्मा कर्म का कर्ता है। अनादिकाल से आत्मा कर्मबद्ध रही। वह बद्धकर्म का निर्जरण और साथ ही नवीन कर्मों का बन्ध करती रही है। रहट की घटमाला की तरह बन्धन और अकाम-निर्जरण का दौर चलता ही रहा। भव्य जीवों के कर्मों की कभी समाप्ति हो सकती है, किन्तु अभव्य जीव तो सदैव कर्म-बद्ध ही रहता है। (४) आत्मा कर्म का भोक्ता है। किये हुए कर्मों का फल, कर्ता को भोगना ही पड़ता है। हम सभी भोग रहे हैं। नारक, तिर्यञ्च और देव भी भोग रहे हैं। यद्यपि सभी कर्मों को रसोदय से भोगना ही पड़ता है, ऐसी बात नहीं है। किन्तु जिनका, सुख या दुःख रूप में वेदन होता है, वह कर्मों का ही फल-भोग है। (५) मोक्ष है। आत्मा केवल कर्म का कर्ता और भोक्ता ही नहीं, कर्मविजेता भी है। वह अकर्मी-निष्कर्मी-कर्म रहित भी होता है। आत्मा का कर्म से रहित होना बन्धन-मुक्ति है, मोक्ष है। मुक्तात्मा ही सिद्ध परमात्मा है। ऐसी आत्माएँ, कर्म से, क्रिया से, शरीर से, योग से और भव-भ्रमण से विमुक्त होकर ऊपर लोकाग्र पर स्थिर हो जाती हैं। (६) मोक्ष का उपाय है। सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप, मुक्ति पाने का उपाय है। संवर से नवीन कर्मों का बन्ध रुकता है। त्याग, विरक्ति, प्रत्याख्यान, कर्मों पर रोक लगाने वाले हैं और तप है कर्म-कचरे का दहन करने वाला। जब संवर व तप का सुमेल होता है, तो कर्मरूपी कचरा जल कर भस्म होने लगता है। जब सभी कर्म-काण्ड जल जाते हैं, तो मुक्ति हो जाती है। आत्मा शुद्ध सोने की भांति परम पवित्र हो जाती है। इन षट्-सूत्री सिद्धान्तों पर विश्वास करने वाली आत्मा में सम्यग्दर्शन की ज्योति प्रकट होती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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