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सम्यग्दर्शन: शास्त्रीय-विवेचन इसलिए जो सम्यग्दर्शन से रहित है, उसे वंदना नहीं करनी चाहिये। अर्थात् चारित्र तभी वंदनीय है जब कि वह सम्यग्दर्शन से युक्त हो । मोक्षपाहुड में कहा है
किं बहुणा भणिएणं जे सिद्धा णरवरा गए काले ।
सिन्डिाह हि जे भविया, तं जाण सम्मतं माहप्पं ॥ अधिक क्या कहें, जो उत्तमपुरुष भूतकाल में सिद्ध हुए हैं वे, और जो भविष्य में सिद्ध होंगे, वे सम्यक्त्व के बल से ही सिद्ध हुए हैं। सम्यक्त्व के इस माहात्म्य को समझना चाहिये।
ते धण्णा सुकयत्था ते सूरा ते वि पंडिया मणुया।
सम्मत्तं सिद्धियरं सिविणे विण मइलियं जेहि ॥ वे मनुष्य धन्य हैं जिनके पास मुक्ति प्रदान कराने वाला सम्यक्त्व है। उस महारत्न को वे स्वप्न में भी मलिन नहीं होने देते। वे ही मनुष्य कृतार्थ हैं, पंडित एवं शूरवीर हैं जिन्होंने मिथ्यात्वरूपी महाशत्रु का प्रबल आक्रमण होते हुए भी अपने सम्यक्त्व रत्न को नहीं खोया, सुरक्षित रखा । रत्नकरंडक श्रावकाचार में कहा गया है
न सम्यक्त्वसमं किंचित्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि ।
श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ।। सम्यक्त्व के समान तीन लोक और तीन काल में इस जीव के लिए अन्य कोई कल्याणकारी नहीं है और मिथ्यात्व के समान दूसरा कोई भी अकल्याणकारी एवं दुःखदायी नहीं है।
जब तक प्राणी के साथ मिथ्यात्व लगा रहेगा, वह आश्रव व बंध नहीं छोड़ सकता। जैसे उसे सम्यक्त्व का स्पर्श हो जाता है वह मिथ्यात्व के गाढ़ बंधन से मुक्त होने की ओर अग्रसर हो जाता है। सम्यक्त्व का उद्भव पहले व्यवहार नय से होता है। व्यवहार नय द्वारा मनुष्य सुदेव, सुगुरु व सुधर्म पर सच्ची श्रद्धा रखता है। इसके द्वारा अपने जीवन को निर्मल बनाता है और प्रयास करते-करते वह निश्चय नय की ओर अग्रसर होता है। निश्चय नय में आत्म-स्वरूप का दिग्दर्शन होता है और आत्मा शुद्ध हो जाता है। आत्मा शुद्ध होने पर कैवल्य-प्राप्ति का साधन बन जाता
समयसार ग्रन्थ में आचार्य कुन्दकुन्दाचार्य ने सम्यग्दर्शन की महिमा का वर्णन विस्तार से किया है। आगमपद्धति के अनुसार दर्शमोहनीय और अनन्तानुबंधी चतुष्क के उपशम होने पर ही प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। पंचलब्धियों में करणलब्धि के बिना सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं होती है। करणलब्धि में अनिवृत्तिकरणलब्धि से ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति संभव है।
श्रुतज्ञान से आत्मा को जानकर जो जीव मति व श्रुतज्ञान द्वारा पर से हटकर आत्मसन्मुख होता है, उसे सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है। सम्यग्दर्शन की महिमा अपरम्पार है। यदि आत्मा का कल्याण होगा तो केवल सम्यक्त्व से ही सम्भव है।
सी-२६, देवनगर, टोंकरोड जयपुर (राज.)
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