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जिनवाणी- विशेषाङ्क
जाती है। इन तीनों तत्त्वों का पारमार्थिक स्वरूप समझकर वह दृढ़ श्रद्धालु हो जाता है | सम्यक्त्व की महिमा बताते हुए कर्तव्यकौमुदी में कहा गया हैसद्देवः सुगुरु : सुधर्म इति सत्तत्त्वत्रयं कथ्यते । ज्ञात्वा तत्परमार्थतः कुरु रुचिं तत्त्वत्रये निर्मले |
दिगम्बर आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में कहा है
सद्दर्शनमहारत्नं, विश्वलोकैक भूषणम् । मुक्तिपर्यन्तकल्याण- दानदक्षं प्रकीर्तितम् ॥
सम्यग्दर्शन, सभी रत्नों में महान् रत्न है, समस्त लोक का भूषण है और आत्मा को मुक्ति प्राप्त होने तक कल्याण-मंगल देने वाला दाता है ।
चरणज्ञानयोर्बीजं, यमप्रशमजीवितम् ।
तपः श्रुताद्यधिष्ठानं, सद्भिः सद्दर्शनं मतम् ॥
सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का बीज है । व्रते, महाव्रत और शम के लिये जीवन स्वरूप है । तप और स्वाध्याय का आश्रयदाता है । साधुओं ने सम्यग्दर्शन को ही सद्ददर्शन माना है ।
मन्ये मुक्तः स पुण्यात्मा, विशुद्धं यस्य दर्शनं । यतस्तदेव मुक्त्यंगमग्रिमं परिकीर्तितम् ॥
एक आचार्य कहते हैं कि जिसे निर्मल सम्यग्दर्शन है वही पुण्यात्मा है, वही महाभाग्यशाली आत्मा मुक्त है, ऐसा मैं मानता हूँ, क्योंकि सम्यग्दर्शन ही मोक्ष का मुख्य अंग कहा गया है
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अतुलसुखनिधानं, सर्वकल्याणबीजं, जनन - जलाधिपोतं, भव्यसत्त्वैकपात्रम् ॥ दुरिततरुकुठारं पुण्यतीर्थप्रधानं, पिबत जित विपक्षं दर्शनाख्यं सुधाम्बु ॥
हे भक्त जीवों ! तुम सम्यग्दर्शन रूपी अमृत का पान करो। यह सम्यग्दर्शन, अतुल सुख का निधान है। सभी प्रकार के कल्याणों का कारण है, संसार समुद्र से तिराने वाला जहाज है । इसे केवल भव्य जीव ही प्राप्त कर सकते हैं । यह पापरूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी के समान है । यह पवित्र तीर्थों में प्रधान है और अपने विपक्ष स्वरूप मिथ्यादर्शन रूपी शत्रु को जीतने वाला है । इसलिये सबसे पहले इस अमृत को ही ग्रहण करना चाहिये ।
'आराधनासार में कहा गया है
येनेदं त्रिजगद्वरेरण्यविभुना प्रोक्तं जिनेन स्वयं । सम्यक्त्वाद्भुतरत्नमेतदुमलं, चाभ्यस्तमप्यादरात् ॥ भक्त्वा सप्रसभं कुकर्मनिचयं शक्त्या च सम्यक्परब्रह्माराधनमद्भुतोदितचिदानंदपदं विंदते ।
जो मनुष्य तीन जगत् के नाथ ऐसे जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्रतिपादित, सम्यक्त्वरूप अद्भुत रत्न का आदर सहित अभ्यास करता है, वह निन्दित कर्मों को बलपूर्वक समूल नष्ट करके विलक्षण आनंद प्रदान करने वाले पर ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है 1
दर्शनपाहुड में लिखा है
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दंसणमूलो धम्मो उवइट्ठो जिणवरेहिं सिस्साणं ।
तं सोउण सकण्णे, दंसणहीणो ण वंदिव्वो ।
जिनेश्वर भगवान् ने शिष्यों को उपदेश दिया कि धर्म दर्शन-मूलक ही है ।
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