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सम्यक्त्व से ही आत्मकल्याण
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x श्रीमती शांता मोदी दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय या उपशम से सम्यग्दर्शन की ज्योति प्रज्ज्वलित होते ही आत्मा की अनादिकालीन जड़ता को ध्वस्त कर देती है जिससे वह परम आनन्द व सुख की ओर अग्रसर हो जाता है । जिस आत्मा ने एक बार सम्यग्दर्शन का स्पर्श कर लिया वह एक भव में या अधिक से अधिक १५ भवों में तो मोक्ष को प्राप्त कर ही लेता है, चाहे वह नरक में भी क्यों न रहा हो ? मोक्ष प्राप्त होने पर अनंत सुख व आनंद की प्राप्ति हो जाती है तथा आत्मा जन्म-मरण के दुःखों से छुटकारा प्राप्त कर ता है।
नन्दीसूत्र में सम्यग्दर्शन को जिन धर्म रूपी मेरु पर्वत की आधार शिला बतलाया है, जिस पर समस्त संघ एवं धर्म आधृत है । सम्यक्त्व की महिमा बताते हुए 'सम्यक्त्व कौमुदी' में लिखा है
सम्यक्त्वरत्नान्न परं हि रत्नं, सम्यक्त्वमित्रान्न परं हि मित्रम् । सम्यक्त्वबंधोर्न परो हि बंधु, सम्यक्त्वलाभान्न परो हि लाभः ॥
संसार में ऐसा कोई रत्न नहीं जो सम्यक्त्व रत्न से बढ़कर मूल्यवान हो । सम्यक्त्व रूप मित्र से बढ़कर कोई मित्र नहीं हो सकता, न बन्धु ही हो सकता है और सम्यक्त्व के लाभ से बढ़कर अन्य कोई लाभ भी नहीं हो सकता ।
सम्यक्त्व के प्रभाव, शक्ति और परिणाम से ज्ञात होता है कि यह एक महती निधि है । यह जीव की वह दशा है जिससे वह अनंत अंधकार से निकलकर प्रकाश में आ जाता है । यह केवलज्ञान की उत्पत्ति की भूमि है। यह केवलज्ञान की माता के समान है। जीव इसी के द्वारा यथार्थ दृष्टि प्राप्त कर लेता है । वैसे श्रद्धा की प्राप्ति परम दुर्लभ है, ऐसा भगवान ने फरमाया है । उत्तराध्ययन सूत्र अध्याय २८ गाथा ३० में प्रभु ने बताया
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णा दंसणिस्स णाणं, णाणेण विणा ण हुंति चरणगुणा । अगुणिस्स मोक्खो, णत्थि अमोक्खस्स णिव्वाणं ॥
अर्थात्-दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता और जिसमें ज्ञान नहीं, उसमें चारित्र गुण नहीं होता। ऐसे गुणहीन पुरुष की मुक्ति नहीं होती । इसके पूर्व कहा कि ' णत्थि चरित्तं सम्मत्तविहूणं' - सम्यक्त्व के बिना चारित्र नहीं होता ।
सूर्य उदित होकर सृष्टि को नया रूप, नयी कान्ति देता है, रात्रि के सघन अन्धकार को नष्ट कर देता है; वैसे ही सम्यग्दर्शन का आलोक आत्मा में एक विशिष्ट जागृति प्रदान करता है । सम्यग्दर्शन की ज्योति विचारों पर तो परिवर्तन लाती है, किन्तु व्यवहार में भी परिवर्तन किये बिना नहीं रहती । विचारों का परिवर्तन आचार पर असर करता ही है। उसे संसार के भोग, विषय- कषाय और इन्द्रिय-सुख नीरस एवं दुःखद प्रतीत होते हैं और भव- भ्रमण के कष्टों का भी अहसास होता है । उस जीव को स्व और पर का भेद परिलक्षित होने लगता है। जड़ और चेतन के स्वरूप को वह समझने लगता है । इस तरह वह मिथ्यात्व से निकलकर सम्यक्त्व की ओर अग्रसर होने लगता है । तब उसे सच्चे देव, सच्चे गुरु व सच्चे धर्म की पहचान हो * वरिष्ठ स्वाध्यायी
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