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________________ २३८ .................................. जिनवाणी-विशेषाङ्क ज्ञान से ही वंचित हों उन्हें मुक्त मानना तो अपनी मिथ्या परिणति ही प्रकट करना है। जैन धर्म ने मुक्त-अमुक्त का स्वरूप वास्तविक रूप से प्रकट किया है। वीतराग वचन है कि मुक्त सिद्धात्मा किसी का हिताहित नहीं करते। उन्हें न तो अपने उपासकों, धर्मात्माओं और सुसाधुओं पर प्रेम है और न पापात्माओं, नास्तिकों और धर्म-घातकों पर द्वेष है, वे अपने निजानन्द में रमे हुए हैं। संसार के सुख-दुःख अथवा धर्म-अधर्म से उनका कोई सरोकार नहीं। वे राग-द्वेष, कर्म, जन्म और मरण से सर्वथा रहित हैं। इस प्रकार मानना सम्यक्त्व है और इसके विपरीत श्रद्धान मिथ्यात्व है। २२. अविनय मिथ्यात्व शास्त्रों में विनय दस प्रकार के वर्णित हैं - .. अरिहन्त का विनय, २. सिद्ध का विनय ३. आचार्य का विनय ४. उपाध्याय का विनय ५. स्थविर का अर्थात् ज्ञानवृद्ध, चारित्रवृद्ध और वयोवृद्ध का विनय ६. तपस्वी का विनय ७. साधु का विनय ८. गणसम्प्रदाय का विनय ९. साधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविका रूप संघ का विनय १०. शुद्ध क्रियावान् का विनय। धर्म का मूल विनय है। जहां विनय गुण का अस्तित्व होता है वहां अन्यान्य गुण स्वयं आकर्षित होकर चले आते हैं। सम्यक्त्वी में विनय-नम्रता का गुण स्वाभाविक ही होता है। देव, गुरु, गुणाधिक एवं धर्म का आदर सत्कार नहीं करना अविनय मिथ्यात्व है। यह मिथ्यात्व, गुण और गुणीजनों के प्रति अश्रद्धा होने पर ही उत्पन्न होता है। अश्रद्धा होने से ही अविनय होता है। इसलिए अविनय भी मिथ्यात्व है। श्री जिनेन्द्र भगवान और गुरु महाराज के वचनों की उत्थापना उनकी आज्ञा का उल्लंघन करना, गुणवान्, ज्ञानवान्, तपस्वी, त्यागी, साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका आदि उत्तम पुरुषों की निन्दा करना, कृतघ्न होना अविनय मिथ्यात्व है। जहां भावों में विपरीतता अर्थात् अविनय के भाव उत्पन्न होते हैं वहीं यह मिथ्यात्व अपना निवास रखता है। २३. आशातना मिथ्यात्व अविनय की तरह आशातना भी मिथ्यात्व है। आशातना का अर्थ है विपरीत होना, प्रतिकूल व्यवहार करना, विरोधी हो जाना, निन्दा करना। आशातना के तेंतीस भेद शास्त्रों में बताए गए हैं। उन्हें जान-बूझकर करें और करके भी बुरा न समझें बल्कि अच्छा समझें तो मिथ्यात्व लगता है। आशातना बुरे भावों से ही होती है। देवादि तथा तत्त्व का अपलाप करना यह सब आशातना मिथ्यात्व है। जिस प्रकार अमृत और विष में महान् अन्तर है, एक तारक है और दूसरा मारक। उसी प्रकार सम्यक्त्व और मिथ्यात्व में भी महान् अन्तर है । सम्यकत्व उद्धारक है तो मिथ्यात्व डुबाने वाला है, संसार-सागर में परिभ्रमण कराने वाला है। साधारणतया विष त्याज्य है उसी प्रकार मिथ्यात्व भी त्याज्य है। २४. अक्रिया मिथ्यात्व क्रिया का निषेध करना, कर्म नष्ट करने के उपाय रूप संवर, निर्जरा को नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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