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________________ सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय विवेचन २३७ मात्र मोक्ष का मार्ग है । मिथ्यात्व रूपी लुटेरे से अपनी आत्मा को बचाना चाहिए । १९. उन्मार्ग को सन्मार्ग श्रद्धना मिथ्यात्व जिस मार्ग में संसार का परिभ्रमण बढ़े, जन्म-मरण और दुःख की परम्परा चले वह उन्मार्ग है। ऐसे उन्मार्ग को सुमार्ग समझना भी मिथ्यात्व है। पृथ्वीकाय, अप्काय, तेज कायादि षट् निकाय की जिसमें हिंसा हो उस कार्य को धर्म मानना भी मिथ्यात्व है। जैसे देव को सचित्त पुष्प, फल आदि चढ़ाने में, धूप देने में, स्नान करने में, यज्ञ करने में धर्म मानना, उन्हें मोक्ष का कारण मानना मिथ्यात्व है। अंबड जैसा पक्का श्रावक जो पहले परपाखंडी था, भगवान् का उपदेश सुनकर दृढ़ सम्यक्त्वी हो गया था। उसके साथ उसके ७०० शिष्य भी पाखंडी से जिनधर्मी बन गए थे। ऐसा प्रकाण्ड विद्वान् और विशिष्ट शक्ति सम्पन्न अंबड संन्यासी भी परपाखंड से दूर रहने प्रभु के सामने प्रतिज्ञा करता है । २०. मुक्त को अमुक्त मानना मिथ्यात्व I मुक्त वे हैं, जिनके अज्ञान मोह, वेदना, शरीर और संसार के सभी सम्बंध छूट चुके हैं, जिनमें किसी भी प्रकार की इच्छा, आशा, तृष्णा या राग-द्वेष का अंश मात्र भी शेष नहीं रहा है । प्रज्ञापनासूत्र में सिद्धों को मुक्त एवं असंसारी माना है । चौदहवें गुणस्थान स्थित अयोगी केवली भगवान् को भी संसारी माना है, क्योंकि अभी उनका अचल एवं शाश्वत स्थान प्राप्त करना शेष है। जब वे लोकाग्र पर स्थिर हो जाते हैं तब उन्हें मुक्त कहा जाता है | आचारांगसूत्र २.१६ की नियुक्ति गाथा ३४२ में लिखा है “देसविमुक्का साहू, सव्वविमुक्का भवे सिद्धा ।” केवली पर्यन्त देशमुक्त हैं और सिद्ध सर्वमुक्त हैं । साधु से लगाकर केवली तक को देश मुक्त माना है । जो मिथ्यात्व से मुक्त हैं, उन्हें मिथ्यात्वी मानना, जो अविरति से मुक्त हैं, उन्हें अविरत असाधु मानना, जो प्रमाद, कषाय और योगमुक्त हैं उन्हें अमुक्त मानना मिथ्यात्व है और सिद्ध परमात्मा को संसारी मानना भी मिथ्यात्व है । इस प्रकार सभी प्रकार से मुक्त, सिद्ध भगवान् को अमुक्त मानने वाले मिथ्यात्वी हैं I जो लोग मुक्तात्माओं से अपनी भौतिक कामनाओं की पूर्ति करने की प्रार्थना करते हैं उन्हें विचार करना चाहिए की वीतराग परमात्मा सराग प्रार्थना की पूर्ति कैसे करेंगे? यदि वे सराग कामनाओं की पूर्ति करेंगे तो वे स्वयं वीतरागी क्यों हुए ? सशरीरी अरिहन्त भगवान् स्वयं राग-द्वेष और संसार को त्यागने का उपदेश देते हैं तो क्या वे हमें राग-द्वेष में फंसाने में सहायक होंगे ? नहीं । 1 २१. अमुक्त को मुक्त मानना मिथ्यात्व जो मुक्त होने का मार्ग ही नहीं जानते हों, जिनके जीवन, चारित्र और सिद्धान्त में राग-द्वेष, अज्ञान, अविरति, प्रमाद और कषाय स्पष्ट रूप से झलकते हों ऐसे असम्यक् संसार-समापन्नक जीवों को मुक्त मानना मिथ्यात्व है 1 मुक्त होने में सबसे पहले स्व और पर का ज्ञान होना अनिवार्य है । स्व-पर के भेद ज्ञान के बाद पर से छूटने का उपाय जानना भी अनिवार्य है । सामान्यतः इतना ज्ञान होने के बाद ही मुक्त होने का उचित प्रयत्न प्रारंभ होता है । जो इस प्रारम्भिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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