SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .... ........... सम्यग्दर्शन: शास्त्रीय-विवेचन २३९ मानना, संसारी आत्मा को अक्रिय मानना तथा आत्म-शुद्धि की क्रिया को नहीं मानना यह सब अक्रिया नामक मिथ्यात्व है। अक्रियावादियों का मत है कि आत्मा परमात्मा है। समस्त पदार्थ अस्थिर है, आत्मा भी अस्थिर है। अतएव उसमें पुण्य-पाप की क्रिया सम्भव नहीं है। अक्रियावादी की यह मान्यता है किआत्मा को पुण्य-पाप का फल भोगना नहीं पड़ता। उनसे पूछना चाहिए कि अगर पुण्य-पाप के फल न भोगने पड़ते होते तो संसार में कोई सुखी और कोई दुःखी क्यों है? ___ अक्रियावादी मानता है कि आत्मा अक्रिय अर्थात् हलन-चलन स्पन्दनादि क्रिया से रहित और स्थिर है। वह अपने ज्ञानभाव उपयोग में ही रहता है। क्रिया करना आत्मा का धर्म नहीं है। क्रिया जड़ में होती है और जड़ कर्म को उत्पन्न करता है। इसलिए क्रिया की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। आत्मा ज्ञाता एवं द्रष्टा ही है, वह कर्ता नहीं है । यदि वह कर्ता है तो अपने ज्ञान-भाव का ही कर्ता है, शारीरिक जड़-क्रिया का नहीं। इस प्रकार आत्मा को एकान्त रूप से अक्रिय मानकर के वे आत्मा की विशुद्धि करने वाली उत्तर क्रिया व्रत, नियम, पुण्य, संवर, निर्जरा, तप आदि आत्मलक्षी क्रिया का निषेध करते हैं और कहते हैं कि आत्मा जड क्रिया का कर्ता नहीं है। क्रिया का खण्डन करने वाले इस मिथ्यात्व के अधिकारी हैं। आत्मवादी होते हुए भी इनका एकान्त अक्रियावाद इन्हें मिथ्यात्व में धकेल रहा है। जिस प्रकार ज्ञानवादी मात्र ज्ञान का ही आग्रह करके क्रिया का निषेध करते हैं उसी प्रकार ये एकान्त अक्रियावादी भी हैं। ये स्वतः खाने, पीने, सोने, चलने, बोलने आदि की क्रिया करते हैं, किन्तु मुंह से वे यही कहते हैं कि 'ये क्रियाएं जड़ करता है, चैतन्य नहीं करता। जड़ से सम्बन्धित चैतन्य और उसके कारण आत्मा में भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, सुख, दुःख और अनुकूल-प्रतिकूल का संवेदन करते हुए भी जो क्रिया का निषेध करते हैं, वे मिथ्यात्वी हैं। क्योंकि यह तो प्रत्यक्ष है कि आत्माशून्य निर्जीव शरीर ही इन क्रियाओं को नहीं कर सकता। शरीर से सम्बन्धित आत्मा वैभाविक दशा में रहा हुआ है। उस पर उदय भाव का असर रहता है। जब तक शरीर सम्बन्ध है तब तक क्रिया होती है, इसलिए संसारी आत्मा को अक्रिय मानना मिथ्या है। निश्चय का सिद्धान्त, निश्चयदशा सम्पन्न सिद्धात्मा पर ही पूर्ण रूप से घटित होता है, संसार व्यवहार (शरीर इन्द्रिय आदि) युक्त जीव पर पूर्ण घटित नहीं होता। संसारी जीवों के लिए अक्रिया का सिद्धान्त अहितकर होता है। इससे वे आत्मशुद्धि-जन्य क्रिया से वंचित रह जाते हैं और कर्म-बन्धन ही बढ़ाते रहते हैं। व्यवहार स्थित आत्मा के लिए निश्चय के ध्येय सहित व्यवहार-धर्म ही उपकारी है। इसका निषेध करना मिथ्यात्व है। २५. अज्ञान मिथ्यात्व ठाणांग ३.३ में स्पष्ट उल्लेख है कि ज्ञान को बंध और पाप का कारण मानकर अज्ञान को श्रेष्ठ मानना मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व के साथ अज्ञान की नियमा है अर्थात् जिसकी आत्मा में मिथ्यात्व है उसकी आत्मा में अज्ञान होता ही है। मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से सब विपरीत ही प्रतिभासित होता है। जैसे अज्ञानवादी कहते हैं "ज्ञान ही सब अनर्थों की जड़ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy