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________________ २३४ जिनवाणी-विशेषाङ्क जिसके आचरण सुसाधु जैसे नहीं हैं, उसे लौकिक विशेषता के कारण अथवा साधु वेश देखकर सुसाधु मानने पर यह मिथ्यात्व लगता है। आगमों में पांच प्रकार के असाधुओं का वर्णन है जिनका संक्षेप में शास्त्र-परिचय इस प्रकार है (i) पासत्थ असाधु - इसके भी दो भेद हैं- (१) सर्व पासत्थ एवं (२) देशपासत्थ । सर्व पासत्थ साधु वे हैं जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के समीप रहकर भी उनका आचरण नहीं करते तथा मिथ्यात्व को अपनाए हुए केवल वेशधारी ही होते हैं। इनमें से देशपासत्थ वे हैं जो शय्यातर पिंड, नित्यपिंड, राजपिंड, अग्रपिंड और जीमनवार आदि का दूषित आहारादि लेते हैं। साथ ही शरीर की शोभा बढ़ाते हैं। (ii) यथाछन्द असाधु - ये श्रमण-समाचारी और आगम-आज्ञा की उपेक्षा करके स्वच्छन्दाचारी होते हैं तथा उत्तम आचार का अपनी इच्छानुसार लोप करते हुए अपने कुतर्क से विशुद्ध आचार में दोष बतलाते हैं। ये वीतराग वाणी की मर्यादा से बाहर प्रवृत्ति करते हैं। (ii) कुशील असाधु - ये ज्ञानाचार, दर्शनाचार और चारित्राचार का पालन नहीं करके विराधना करते रहते हैं। मंत्र, तंत्र, ज्योतिष और वैद्यक तथा कौतुक आदि दूषित क्रिया करके आजीविका चलाते हैं। ___(iv) अवसन्न असाधु - संयम से शिथिल रहते हुए अविधि से असमय में प्रतिक्रमण स्वाध्यायादि करते हैं या न्यूनाधिक करते हैं। आवश्यकी, नैषेधिकी आदि समाचारी के पालन में असजग रहते हैं और अनैषणीय आहारादि लेते हैं। इस प्रकार अनेक दोषों के पात्र अवसन्न साधु भी असाधु हैं । . (v) संसक्त - विषयों में आसक्त, पांचों प्रकार के आश्रव में प्रवृत्ति करने वाले, कुशीलियों की संगति करने वाले तथा जिनके मूलगुण और उत्तरगुण में सभी प्रकार के दोष लगते हों - ऐसे मिश्र परिणाम वाले साधु भी असाधु होते हैं। जिस प्रकार खाली मुट्ठी और खोटा सिक्का काम का नहीं होता उसी प्रकार चारित्रहीन वेशधारी साधु भी त्याज्य हैं, क्योंकि वे वीर के मार्ग से बहिष्कृत हैं - "न वीरजायं अणुजाइ मग्गं ।” ____ मध्ययुग में भगवान महावीर के वंशज साधुओं की जीवनचर्या बहुत बिगड़ गई थी। वे भगवान के साधु कहलाते हुए भी असाधुता के कार्य करते थे। उनकी असाधुता का वर्णन हरिभद्रसूरि ने 'संबोध प्रकरण' में १७१ गाथाओं में विस्तार से किया है। ___ जैनधर्म-सम्मत साधु वही हो सकता है जो जिनेश्वर की आज्ञा माने और समाचारी का पालन करे। जो जिनाज्ञा को आदरणीय नहीं मानता, वह जैन साधु हो ही नहीं सकता। साधुता के आचार की पहली शर्त है सावध क्रिया का सर्वथा त्याग। अतः हीनाचारियों से बचते हुए सच्चे साधुओं को ही साधु मानना चाहिए। १६. जीव को अजीव श्रद्धना मिथ्यात्व गतिपरिणाम, इन्द्रिय परिणाम, योग परिणाम आदि दस लक्षणों से जीव परिणाम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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