SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३३ सम्यग्दर्शन: शास्त्रीय-विवेचन भगवान् के पुरुषार्थवाद का मण्डन किया । देव स्वयं अपनी मान्यता को उस मानव के खण्डन से नहीं बचा सका और शंकित होकर लौट गया। पुरुषार्थ का खण्डन करना मिथ्यात्व है । (उपासकदशाङ्ग सूत्र) १४. साधु को असाधु मानना मिथ्यात्व __ जिसमें साधुता के गुण हों, जिसकी श्रद्धा प्ररूपणा शुद्ध है, जो महाव्रतादि श्रमणधर्म का पालक है ऐसे सुसाधु को कुसाधु समझना भी मिथ्यात्व है । जो नाम, स्थापना, द्रव्य और वेश मात्र से ही साधु नहीं, किन्तु द्रव्य और भाव से साधु हों वे ही वास्तविक साधु होने से वंदनीय-पूजनीय होते हैं। जिनके अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरणीय और प्रत्याख्यानावरणीय कषाय की तीन चौकड़ियां उदय में नहीं हों, जो सर्वविरति का सम्यग् रूप से पालन करते हों, पांच महाव्रत, रात्रि-भोजन-त्याग और पांच समिति, तीन गुप्ति युक्त हों, दसविध समाचारी के पालक हों और जिनेश्वर भगवान् की आज्ञानुसार चलने वाले हों वे ही खरे साधु हैं। ऐसे वास्तविक साधुओं को साधु नहीं मानना मिथ्यात्व है। जो सच्चे साधु का डौल करते हुए भी अपने मुक्ति के ध्येय से विमुख हो जाते हैं और विविध प्रकार के सांसारिक उद्देश्यों की ओर झुक जाते हैं, जिनके सोचने के विषय सांसारिक हैं, जिनके लिखने-बोलने के विषय लौकिक हैं, जो संसार के सावध कार्यों में योग देते हैं, जिनके भाषण निर्ग्रन्थ प्रवचन की मर्यादा के बाहर जा रहे हैं वे निर्ग्रन्थ अणगार नहीं हैं, वे कोई ओर ही हैं। वास्तव में वे नाम और वेश से ही साधु हैं भाव से तो वे असाधु हो चुके हैं। भगवान् महावीर के निर्ग्रन्थ साधु न तो आरम्भजनक सावध वचन बोलते हैं, न वैसा लिखते हैं न वे संसारियों में चलते हुए विवादों, संघर्षों और आन्दोलनों में उलझते हैं। वे इन सब प्रपंचों से दूर रहकर जिनोपदिष्ट मोक्ष-मार्ग पर ही चलते रहते हैं। उववाईसत्र में स्पष्ट लिखा गया है कि जो साधु “णिग्गंथं पावयणं पुरओकाओ विहरई” निर्ग्रन्थ प्रवचन को आगे करके उसके अनुसार प्रवर्तन करते हुए विचरते हैं, वे खरे साधु हैं। ऐसे उत्तम साधुओं को असाधु मानना मिथ्यात्व है। १५. असाधु को साधु मानना मिथ्यात्व साधु के पूर्वोक्त गुणों से रहित, गृहस्थ के सदृश, मात्र वेशधारक, दस प्रकार के यतिधर्म से रहित, पापों का स्वयं सेवन करने वाले, सेवन कराने वाले और पापों का सेवन करने वालों का अनुमोदन करने वाले, परिमाण से अधिक तथा विभिन्न प्रकार के वस्त्र धारण करने वाले, धातु के बने पदार्थ रखने वाले, षट्काय के जीवों के अरक्षक, महाक्रोधी, महामानी, दगाबाज, महालालची एवं निन्दक व्यक्ति को साधु मानना मिथ्यात्व है। आजकल कितने ही लोग मानते हैं कि हम तो वेष को वन्दना करते हैं। ऐसे भोले लोगों को विचारना चाहिए कि बहुरूपिया या नाटककार पात्र यदि साधु का वेष बनाकर आ जाए तो क्या वह वन्दना करने योग्य हो जाएगा? क्या उसे साधु कहा जा सकता है? कदापि नहीं। इस प्रकार जिसमें न तो दर्शन और न चारित्र गुण ही है, जिसकी श्रद्धा प्ररूपणा खोटी है, जो पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति से रहित है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy