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________________ २३५ सम्यग्दर्शन: शास्त्रीय-विवेचन . जाना जाता है। उनसे युक्त एकेन्द्रिय आदि जीवों को जीव न मानना मिथ्यात्व है। स्थानांग सूत्र, १० तथा प्रज्ञापना सूत्र, १३ में दस प्रकार का जीव-परिणाम निम्न प्रकार से बताया गया है १. गतिपरिणाम - भिन्न-भिन्न गतियों में जन्म लेना। जन्म और मृत्यु जीव की ही होती है, अजीव की नहीं। २. इन्द्रिय परिणाम - जीव का शरीर के साथ इन्द्रिय सम्पन्न होना। चाहे एकेन्द्रिय हो या पंचेन्द्रिय हो। अजीव के इन्द्रियां नहीं होती। ३. कषाय परिणाम - क्रोध, मान, माया और लोभ जीव में ही होते हैं अजीव में नहीं होते। ४. लेश्या परिणाम कषायों को बढ़ाने वाली कृष्णादि-६ लेश्याएं जीव के साथ चिपकी रहती हैं । ये अजीव के नहीं होती। ५. योग परिणाम - मन, वचन, काया (शरीर) का योग जीव के ही होता है, अजीव के नहीं। ६. उपयोग परिणाम - उपयोग जीव का लक्षण है । जगत् अनेक जड़-चेतन पदार्थों का मिश्रण है। उनमें से जड़ और चेतन का विवेकपूर्वक निश्चय करना ही तो उपयोग के द्वारा हो सकता है, क्योंकि उपयोग तरतम भाव से सभी आत्माओं में अवश्य पाया जाता है । जड़ वही है जिसमें उपयोग नहीं। ७. ज्ञान परिणाम - वस्तु के विशेष धर्म को जानने रूप ज्ञान जीव का आत्मिक गुण है। ८. दर्शन परिणाम - दर्शन का सामान्य अर्थ देखना है। विश्वास करना, श्रद्धा करना, यथार्थ रूप से पदार्थों का निश्चय करना दर्शन परिणाम है। यह जीव का आत्मिक परिणाम होता है । यह अजीव के नहीं होता है। ९. चारित्र परिणाम - आचार प्रवृत्ति को चारित्र परिणाम कहते हैं। यह प्रवृत्ति अजीव में नहीं होती है। १०. वेद परिणाम - स्त्री, पुरुष और नपुंसक सम्बन्धी भोग-कामना भी जीव में होती है। ये सब बातें जीव में होती हैं अजीव में नहीं होती हैं. इसलिए जीव का अस्तित्व मानना चाहिए। जीव तत्त्व को नहीं मानने वाले अथवा गलत रूप से मानने वाले सम्यग्दृष्टि नहीं हैं। सम्यग्दृष्टि वही है जो जीव का अस्तित्व माने। उसे सदाकाल शाश्वत माने। सिद्ध भी जीव हैं तथा संसारी भी जीव हैं। ऊपर संसारी जीवों के परिणाम निरूपित हैं, उनमें से सिद्धों में उपयोग, ज्ञान एवं दर्शन परिणाम पाये जाते हैं। १७. अजीव को जीव श्रद्धना मिथ्यात्व जिस तत्त्व में जीव नहीं हो, जो जड़ स्वभाव वाला हो वह अजीव है। सूखे काष्ठ को, निर्जीव पाषाण को अथवा पीतल आदि धातुओं से बनी आकृति को साक्षात् जीव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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