________________
२३०
जिनवाणी- विशेषाङ्क
करनी चाहिए। अपने विषय - कषायों की पूर्ति के लिए उनकी आराधना करना, इसी प्रकार भौतिक स्वार्थ भावना से, निर्ग्रन्थों की सेवा, मांगलिक - श्रवण, सामायिक, आयम्बिलादि तप करना लोकोत्तर मिथ्यात्व है । इसके भी देवगत, गुरुगत और धर्मगत ऐसे तीन भेद होते हैं ।
जैन साधु का नाम और वेषधारण करने वाले, किन्तु साधुपन के गुणों से रहित को धर्मगुरु मानना लोकोत्तर गुरुगत मिथ्यात्व है ।
जैन धर्म भव-भव में कल्याणकारी है । इस धर्म का सेवन करने से निराबाध और अक्षय मोक्षसुख की प्राप्ति होती है । फिर भी इस सुख की उपेक्षा करके इस लोक सम्बन्धी धन, पुत्र, स्त्री आदि को प्राप्त करने के लिए धर्म का आचरण करना लोकोत्तर धर्मगत मिथ्यात्व है । जैसे पुत्र प्राप्त करने की इच्छा से कनकावली तप करना, करोड़पति बनने की अभिलाषा से सामायिक करना आदि। इस प्रकार की रूढ़ि जहां कहीं भी हो उसे दूर कर अनन्त जन्म-मरण के फेर को मिटा देने वाले धर्म को स्वीकार करना चाहिए ।
८. कुप्रावचनिक मिथ्यात्व
कुप्रवचन या मिथ्या सिद्धान्त को अपनाना कुप्रावचनिक मिथ्यात्व है। निर्ग्रन्थ प्रवचन के अतिरिक्त अन्य सब कुप्रवचन है। श्री उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन २३ में लिखा है
'कुप्पवयणपासंडी, सव्वे उम्मग्गपट्टिया ।
•सम्मग्गं तु जिणक्खायं, एस मग्गे हि उत्तमे ।'
अर्थात् जिनेश्वर भगवंतों द्वारा प्रकाशित मोक्षमार्ग ही उत्तम है। इसके सिवाय जितने भी वचन हैं, वे सब कुप्रवचन होकर उन्मार्ग पर ले जाने वाले हैं । हमें जिन - प्रवचन पर पूर्णरूप से श्रद्धा-भक्ति करके कुप्रवचन रूप मिथ्यात्व से बचना चाहिए ।
९. जिनवाणी से न्यून प्ररूपणा मिथ्यात्व
तत्त्व के स्वरूप में से कम को ही सत्य मानना, एकाध तत्त्व या उसके किसी भी भेद में अविश्वासी होना न्यून प्ररूपणा मिथ्यात्त्व है। कोई व्यक्ति कई बार यों कहा करते हैं कि इतनी सी बात नहीं मानें तो क्या हो गया ? किन्तु यह सब परमतवाद है । जो जैनी कहलाता है उसे तो जिनेश्वरों के वचनों को पूर्ण रूप से यथार्थ मानना ही पड़ेगा । प्रज्ञापना सूत्र के मूल पाठ में लिखा है- “ मिथ्यादर्शन विरमण समस्त द्रव्यों से होता है ।" (पद २२)
अनन्त-ज्ञानियों के सिद्धान्त में कमी करना, आगम पाठों में से मात्रा, अनुस्वार, अक्षर, शब्द, वाक्यगाथासूत्र आदि निकाल देना, कम कर देना, सिद्धान्त की प्ररूपणा में अपने प्रतिकूल पड़ने वाले अंश को छोड़ देना, शरीरव्यापी आत्मा को अंगुष्ठ-प्रमाण मानना आदि न्यून प्ररूपण मिथ्यात्व है। अपनी कमजोरी से कम पले तो इसे अपना दोष मानना, लेकिन वस्तु स्वरूप की मान्यता तथा प्ररूपणा में कमी नहीं करना यह सस्यक्त्व शुद्धि के लिए आवश्यक
1
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org