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________________ सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय - विवेचन १०. जिनवाणी से अधिक प्ररूपणा मिथ्यात्व जिन - प्रवचन से अधिक मानना मिथ्यात्व है (ठाणांग सूत्र २.१) । जिस प्रकार न्यूनकरण मिथ्यात्व है, उसी प्रकार अधिककरण भी मिथ्यात्व है । आगम पाठों में मात्रा, अनुस्वार, अक्षर, शब्द, वाक्य, गाथा, सूत्र आदि बढ़ा देना, सैद्धान्तिक मर्यादा का अतिक्रमण करना इत्यादि प्रकार से निर्ग्रन्थ प्रवचन की मर्यादा से अधिक प्ररूपणादि करना अधिककरण मिथ्यात्व है । जैसे भगवान् महावीर के ७०० केवली शिष्य, ग्यारह गणधर और नौगण शास्त्र में कहे गए हैं, उनमें ज्यादा कहना अर्थात् केवली के वचन से अधिक प्ररूपण करना भी मिथ्यात्व है । ११. जिनवाणी से विपरीत प्ररूपणा मिथ्यात्व 1 निर्ग्रन्थ- प्रवचन से विपरीत प्रचार करना, सावद्य एवं संसारलक्षी - प्रवृत्ति करना या उसका प्रचार करना तथा सावद्य प्रवृत्ति में धर्म मानना विपरीत मिथ्यात्व है । पुण्य, पाप और आश्रव शुभाशुभ बन्ध रूप है, इन्हें संवर - निर्जरा रूप मानना, तथा बंध के कारण को मोक्ष का कारण बताना, विपरीत मिथ्यात्व है । धर्म को अधर्म, अधर्म को धर्म इत्यादि सभी प्रकार के मिथ्यात्व, विपरीत मिथ्यात्व हैं । इनमें सभी प्रकार के मिथ्यात्व का समावेश हो जाता है। जमाली ने भगवान महावीर के कथन, “कडमाणे कडे" अर्थात् 'जो किया जा रहा है उसे किया हुआ ही कहा जाता है' को मिथ्या बताया तथा स्वयं के कथन को 'काम पूरा होने पर ही उसे किया हुआ कहना चाहिए, को सत्य बतलाया। इस प्रकार अपेक्षावाद को भुलाकर, एकान्तवाद का आश्रय लेकर भगवान को झूठा कहने से उन्होंने मिथ्यात्व का उपार्जन कर लिया था । प्राचीनकाल में जनप्रणीत शास्त्रों से विपरीत प्ररूपणा करने वाले सात निह्नव में से जमाली पहले निह्नव हुए। किञ्चित् विपरीतता भी महामिथ्यात्व का कारण बनती है । इसलिए सम्यक्त्व को विशुद्ध रखने के लिए निर्ग्रन्थ प्रवचन पर पूर्ण रूप से समर्पण भाव रहना चाहिए। आनन्दघन ने भी दर्शन की महत्ता प्रतिपादित करते हुए कहा शुद्ध श्रद्धा बिना सर्व किरिया करी, छार पर लीपणुं तेह जाणो रे । अर्थात् बिना श्रद्धा के जो क्रियाएं की जाती हैं, वह राख (भस्म) पर लेपन करने सदृश है। १२. धर्म को अधर्म श्रद्धना मिथ्यात्व सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपरूप धर्म को अधर्म समझना मिथ्यात्व है । जिनेश्वर प्रणीत आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुत स्कंध के पांचवें अध्याय में धर्म का स्वरूप इस प्रकार कहा है- “ साधक ! तू संकल्प-विकल्प छोड़ कर बस यही निश्चय कर ले कि जिनेश्वर भगवंत ने कहा, वही सत्य है । पूर्ण रूप से सत्य है, निस्संदेह सत्य है - तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं । ” हृदय में यह आस्था करके साधना में लग जाना चाहिए। दूसरों को देखकर मन में संकल्प - विकल्प मत कर । यह भी कहा है कि "आणाए मामगं धम्मं एस उत्तरवाए इह माणवाणं वियाहिए ।" अर्थात् भगवान कहते हैं कि मेरे बताए हुए मार्ग पर मेरी आज्ञा के अनुसार चलने में ही मेरा धर्म है । २३१ वास्तव में वीतराग सर्वज्ञ भगवंत की आज्ञा का पालन करना ही सर्वश्रेष्ठ है । जिस प्रकार रोगी डाक्टर की, सैनिक सेनापति की, विद्यार्थी अध्यापक की और प्रजा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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