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________________ सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय- विवेचन वैडालव्रतिको ज्ञेयो हिस्रः सर्वाभिसंधकः ॥ अधोदृष्टिरकृतिकः स्वार्थसाधनतत्परः । शठी मिथ्याविनीतश्च बकवृत्तिचरोद्विजः ॥ अर्थात् धर्म के नाम पर लोगों को ठगने वाला, सदा लोभी, कपटी, अपनी बड़ाई हांकने वाला, हिंसक, वैर रखने वाला, थोड़ा गुणों वाला होकर बहुत बतलाने वाला, स्वार्थी, अपने पक्ष को मिथ्या समझकर भी न छोड़ने वाला, झूठी शपथ खाने वाला, ऊपर से उज्ज्वल और भीतर मैला, बगुला सरीखी वृत्ति वाला द्विज पाखण्डी है । २२९ इस प्रकार के मिथ्यात्वियों की संगति नहीं करनी चाहिए । विपरीतसंसर्ग व्यक्ति को पथभ्रष्ट कर देता । कहा भी है 'संसर्गजा दोष- गुणाः भवन्ति ।' अच्छी संगति से सद्गुण पैदा होते हैं तो कुसंगति से दुर्गुण । शेखसादी ने गुलिस्तां में कहा है'फरिश्ता शैतान के साथ रहने लगे तो वह कुछ दिनों में शैतान बन जाएगा ।' अतः साधक को, भक्तों को सावधानी रखनी चाहिए । सम्यक्त्व धर्मरूपी विराट् नगर का विशाल प्राकार है । प्राकार से नगर सुरक्षित रहता है। शत्रु उस पर हमला नहीं कर सकता है। यदि सम्यक्त्व रूपी प्राकार ( परकोटा) सुरक्षित है तो किसी भी दुर्गुणरूपी शत्रु की शक्ति नहीं कि वह उसमें प्रविष्ट हो सके । (स) लौकिक धर्मगतमिथ्यात्व - लौकिक मिथ्यात्व का यह तीसरा भेद है । धर्म का नाम तो लेना, किन्तु धर्म का कृत्य बिलकुल न करना, एकान्त अधर्म के काम करना और उन्हें धर्म समझ लेना लौकिक धर्मगत मिथ्यात्व है । जैसे देवता के आगे बकरा आदि का बलिदान करना और फिर स्वर्ग पाने की अभिलाषा करना, तीर्थस्थानों पर नहाने में धर्म मानना आदि धर्मगत मिथ्यात्व है । यदि स्नान से पाप का नाश होता हो तो कच्छ-मच्छ आदि जलचर जीवों को सबसे बड़ा धर्मात्मा और मोक्ष का अधिकारी मानना पड़ेगा, क्योंकि वे सदैव पानी में रहते हैं । फिर बड़े-बड़े तपस्वियों ने वृथा तप क्यों किया? जब तक मन का मैल दूर नहीं होगा तब तक पापी जीवों को गंगा भी शुद्ध नहीं कर सकती है । मीमांसा दर्शन का प्रथम सूत्र है - 'अथातो धर्मजिज्ञासा' । धर्म वह है जो प्रेरणा प्रदान करे । धर्म उत्कृष्ट मंगल है । वस्तुतः धर्म शब्द 'धृ-धारणे' धातु से निष्पन्न है जो धारण करता है, जो दुर्गति से प्राणियों को बचाता है वह धर्म है। अर्थात् धर्म मानव के विचार और आचार को विशुद्ध बनाने वाला तत्त्व है । जीवन के जितने भी निर्मल, दिव्य और भव्य बनाने के विधि-विधान हैं या क्रिया-कलाप हैं, वे सभी धर्म हैं । धर्मकार्य में अल्पदुःख और महान् सुख है। धर्म के कामों में व्रत, नियम, तप आदि करने में पहले दुःख प्रतीत होता है, पर वास्तव में वह दुःख नहीं है, क्योंकि उस नाम मात्र के दुःख में परम सुख रहा हुआ है। ऐसा जानकर लौकिक मिथ्यात्वमय विचारों और आचारों का त्याग करके सच्चे देव, सच्चे गुरु और सच्चे धर्म को स्वीकार कर परमसुख प्राप्त करना चाहिए । ७. लोकोत्तर मिथ्यात्व मूलसूत्र अनुयोगद्वार में कहा गया है कि तीर्थंकर भगवान् लोकोत्तर देव हैं, वे वीतरागी हैं, उनकी आराधना अपनी आत्मा में वीतरागता का गुण लाने के लिए ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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