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________________ ....... २२८ जिनवाणी-विशेषाङ्क ६.लौकिक मिथ्यात्व अनुयोगद्वार में स्पष्ट वर्णित है कि जैनमत के सिवाय अन्य मत को मानना, लोकरूढ़ियों में धर्म मानना, वीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशकता के गुण रागी द्वेषी, छद्मस्थ और मिथ्या मार्ग प्रवर्तक एवं संसार-मार्ग के प्रणेता को देव मानना, सम्यक्चारित्र रूप पांच महाव्रत तथा समिति-गुप्ति से रहित, नामधारी साधु या गृहस्थ को गुरु मानना और जिसमें सम्यग्ज्ञानादि का अभाव है और जो लौकिक क्रियाकाण्डमय है उसे धर्म मानना, स्नान, यज्ञादि सावध प्रवृत्ति में धर्म मानना लौकिक मिथ्यात्व है। इसके तीन भेद हैं-१. देवगत लौकिक मिथ्यात्व २. गुरुगत लौकिक मिथ्यात्व और ३. धर्मगत लौकिक मिथ्यात्व । (अ) देवगत लौकिक मिथ्यात्व - सम्पूर्ण ज्ञान और परिपूर्ण वीतरागता सच्चे देव के लक्षण हैं। यह लक्षण जिनमें न पाए जावें, उन देवों को देव मानना देवगत मिथ्यात्व है। कितने ही लोग चित्र, वस्त्र, कागज, मिट्टी, काष्ठ, पत्थर आदि से अपने हाथों द्वारा देव बनाकर उसे असली देव ही मानते हैं और उसकी पूजा करते हैं। ऐसे देव में जैन साधना का प्राण तत्त्व सम्यग्दर्शन आदि देवगत गुण नहीं होते हैं, अतः वह भाव देव नहीं हो सकता। अनेक जैन भाई अर्हन्त भगवान के उपासक होते हुए भी, भ्रम के वशीभूत होकर धन की प्राप्ति के लिए दोषों से दूषित देवों के स्थानों में जाते हैं और उनके आगे अपना मस्तक रगड़ते हैं, उनकी पूजा करते हैं और रक्त-मांस से व्याप्त पवित्र स्थान में अनेक प्रकार के भोजन बनाकर उन देवों को भोग लगाते हैं और आप भी खाते हैं। इस प्रकार वे सम्यक्त्व और धर्म से भ्रष्ट होते हैं। विभिन्न प्रकार की मनौतियां मनाने वाले जिज्ञासु इस प्रकार का विचार करें कि यदि देव की मनौती मानने से ही पुत्र की प्राप्ति हो तो स्त्री को पति-सम्बन्ध की क्या आवश्यकता है? ऐसी स्थिति में विधवा, वन्ध्या और कुमारिकाएं सभी पुत्रवती क्यों नहीं बन जाती? अगर देव में इच्छा पूर्ण करने की शक्ति होती तो वे हमारी आशा क्यों करते हैं? वे हमसे भेंट पूजा क्यों चाहते हैं? पहले अपनी इच्छा स्वयं पूर्ण क्यों नहीं कर लेते? जो दमड़ी-दमड़ी की वस्तु के लिए मुंह ताकते बैठे हैं, हमसे वस्तु पाकर ही तृप्त होते हैं, जो स्वयं दूसरों पर निर्भर हैं वे हमें पुत्र या धन किस प्रकार दे सकते हैं? इस प्रकार कितने ही लोग अनजानपन से, अज्ञानता के कारण अथवा भोलेपन के कारण इस लौकिक देवगत मिथ्यात्व को पकड़े हुए हैं। (ब) गुरुगत लौकिक मिथ्यात्व - गुरु (साधु) का नाम धराया पर गुरु के लक्षण-गुण जिन्होंने प्राप्त नहीं किए, जो हिंसा करते हैं, झूठ बोलते हैं, रात्रि भोजन करते हैं, तिलक, माला, इत्र, आभूषणादि से शरीर को सुसज्जित करते हैं, वाहन पर बैठते हैं अनेक प्रकार का पाखण्ड करते हैं, ऐसे व्यक्तियों को गुरु मानना - पूजना गुरुगत लौकिक मिथ्यात्व है। शास्त्र में ३६३ प्रकार के पाखण्ड मत बतलाए गए हैं उनका विस्तार से स्वरूप समझ लेने से कुगुरुओं का स्वरूप भली-भांति समझ में आ जाता है। मनुस्मृति अध्याय ४ में पाखण्डी गुरु के विषय में कहा गया है ___धर्मध्वजो सदा लुब्धः छागिको लोकदम्भकः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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