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________________ सम्यग्दर्शन: शास्त्रीय-विवेचन २२७ साधर के द्वारा एक मनुष्य में जो शक्ति विकसित हो सकती है और उससे बिना किसी खर्चे के वह जो भौतिक शक्ति प्राप्त कर सकता है उसका शतांश भी इन भौतिक वैज्ञानिकों में नहीं है। जिनागमों में बताया है कि साधना के बलपर प्राप्त की हुई वैक्रिय शक्ति से मनुष्य अपने लाखों-करोड़ों रूप बना सकता है। अपनी ही आत्मशक्ति से करोड़ों मनुष्यों की सशस्त्र सेना बना सकता है और अपनी क्रोधित दृष्टि (तेजोलेश्या) मात्र से हजारों लोगों का संहार भी कर सकता है। वैक्रियलब्धि वाला मनुष्य देव के समान शक्ति रखता है। इसी प्रकार साधना के बल पर प्राप्त की हुई आत्मशक्तियों के जैनागमों में अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं। तब आज का भौतिक विज्ञान अरबों डालर खर्च करके भी उनके समकक्ष नहीं पहुंच सका और आगे भी नहीं पहुँच सकेगा। ____ 'जिनेश्वर भगवंत वीतराग हैं, सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं' इतना ही विश्वास हो और यह भी श्रद्धा हो कि वीतराग भगवंत कभी भी आरम्भ-परिग्रहजन्य उपदेश नहीं देते, तो इस श्रद्धा के आधार पर सम्यग्श्रुत और मिथ्याश्रुत का विवेक कर सांशयिक मिथ्यात्व से बचा जा सकता है । इस मिथ्यात्व का निवास भव्य जीवों में होता है। शंका या संशय जीवन की महान् दुर्बलता है, जिसके रहते सम्यक्त्व स्थिर नहीं रहता। जो व्यक्ति लड़खड़ाते कदम से चलता है वह कभी भी मंजिल पर नहीं पहुंच सकता। संशय से संकल्प में, विचारों में दृढ़ता नहीं आती और बिना दृढ़ता के लक्ष्यपर पहुंचने के लिए आन्तरिक बल प्राप्त नहीं होता और बिना आन्तरिक बल के साध्य की सिद्धि प्राप्त नहीं होती। अतः आवश्यक है कि अपने साध्य और साधनों पर पूर्ण निष्ठा रखी जाए। उसमें किसी प्रकार की शंका न की जाए। ५. अनाभोगिक मिथ्यात्व ___विचार-शून्यता अथवा मनन शक्ति के अभाव में ज्ञानावरणीय आदि कर्म के उग्रतम उदय से होने वाला मिथ्यात्व अनाभोगिक है। यह मिथ्यात्व एकेन्द्रियादि से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में होता है। उपर्युक्त चार प्रकार के मिथ्यात्व युक्त जीवों की अपेक्षा अनाभोग मिथ्यात्व वाले जीव अधिक हैं। अनाभोग मिथ्यात्व अभव्य जीव को असंज्ञी अवस्था में होता है। जिस प्रकार विवेकहीन व्यक्ति अपना हिताहित नहीं सोच सकता, उसी प्रकार अनाभोग मिथ्यात्वी भी आत्महित के विषय में अच्छा-बुरा कुछ भी नहीं सोच सकता है। किन्तु इसकी स्थिति उस बेहोश व्यक्ति जैसी है जिसे अपने हिताहित का कोई भान ही नहीं है। कोई लूट ले, काट डाले या जला डाले, तो भी वह कुछ भी नहीं कर सकता। जिन जीवों के मन ही नहीं वे सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के विषयमें सोच ही नहीं सकते। अपने जीवन सम्बन्धी बनी बनाई ओघदष्टि के सिवाय उनमें मत-पक्ष की बात ही नहीं होती । वे धर्म, अधर्म का विचार ही नहीं कर सकते। सम्यग्दृष्टि वही हो सकता है, जो असत्य पक्ष को नहीं अपनाता है और सत्य को स्वीकार करता है। वनस्पतिकाय की स्थिति अनन्त काल की होती है उतनी ही स्थिति अनाभोगिक मिथ्यात्व की मान्य है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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