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________________ २२६ जिनवाणी- विशेषाङ्क की प्रतिष्ठा बढ़ जाएगी । इस प्रकार का दुर्विचार इस मिथ्यात्व का मूल कारण है । सम्यग्दृष्टि चाहकर भूल नहीं करता, किन्तु अनुपयोग अथवा गलत धारणादि के योग से भूल हो जाती है । यदि उसे मालूम हो जावे कि मेरी कही हुई अथवा लिखी हुई बात गलत है, तब शीघ्र ही वह उस भूल को सुधार कर सत्य स्वीकार करने में तत्पर रहता है । यह तत्परता और भूल सुधार उसे मिथ्यात्व से बचाते हैं । उसकी भावना में अपनी भूल प्रकट होने का भय नहीं, किन्तु भूल दूर करके सत्य प्रकट होने की प्रसन्नता रहती है । यह बात जितनी कहने में सरल है, उतनी करने में सरल नहीं है । कहते तो दोनों पक्ष वाले ऐसा ही हैं, परन्तु करते समय प्रतिष्ठा का विचार सामने आकर खड़ा हो जाता है और उस आत्मा को आभिनिवेशिक मिथ्यात्व में ले जाता है । कमलप्रभ आचार्य ने अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के कारण ही सत्य को छिपाकर अनन्त संसार बढ़ाया था । हम अपने जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग देख चुके हैं और देख रहे हैं, हमारे सामने ऐसे अनेक प्रमाण हैं कि जिनमें अनेक व्यक्ति प्रतिष्ठा के भूत के प्रभाव से, असत्य पक्ष को पकड़े हुए बैठे हैं । कई लोग अक्सर कहते हैं कि हम वाद-विवाद पसन्द नहीं करते । आलोचनाओं में क्या धरा है, हम तो इनकी उपेक्षा ही करते हैं इत्यादि शब्दों से उपेक्षा करके शान्ति के उपासक से बने चुपचाप रहते हैं । यह ठीक है कि इससे वाद-विवाद नहीं बढ़ता है, परन्तु इस चुप्पी की ओर से असत्य को छुपाया जाता है और सत्य की बलि देकर शक्ति के उपासक का दंभ होता है । यह मिथ्यात्व भव्य जीवों को ही होता है । ४. सांशयिक मिथ्यात्व 1 देव, गुरु और धर्म के तत्त्व के स्वरूप में संशय रखना सांशयिक - मिथ्यात्व है। अतएव शास्त्र की कोई बात अगर समझ में न आवे तो विचारशील पुरुष को अपनी बुद्धि की मन्दता समझनी चाहिए, किन्तु तीर्थंकर भगवान् या आचार्यों का तनिक भी दोष नहीं समझना चाहिए । जब कभी ज्ञानी आचार्यों या विद्वानों का योग मिले तब शंकाओं का समाधान करना चाहिए । फिर भी शंका रह जाए तो ज्ञानावरण कर्म का उदय मानना चाहिए। किन्तु केवली भगवान् के वचनों को सत्य ही समझना चाहिए । समुद्र का सारा पानी लोटे में नहीं समा सकता। उसी प्रकार प्रभु के वचन अल्पज्ञ और छद्मस्थ की समझ में पूरी तरह कैसे आ सकते हैं? इस प्रकार विचार कर सांशयिक मिथ्यात्व का त्याग करना चाहिए । सांशयिक मिथ्यात्व को बढ़ाने के विभिन्न कारणों में भौतिक विज्ञान भी निमित्त बना है। भौतिक विज्ञान के प्रभाव में आए हुए कई 'जैन पंडित' कहलाने वालों ने साधारण जनता को शंकाशील बनाकर मिथ्यात्व में धकेल दिया है । कई प्रसिद्ध विद्वान् तो स्पष्ट लिख चुके हैं कि 'आजकल के वैज्ञानिक तथ्यों के आधार से आगमों में संशोधन करना चाहिए।' इस भौतिक चकाचौंध से ग्रसित मानव भी संशोधन कर अपने अहंकार की पुष्टि करता है । इस प्रकार लौकिक ज्ञान को आधारभूत मानकर लोकोत्तर धर्म में परिवर्तन करने की मिथ्या बातें प्रचलित करके सांशयिक मिथ्यात्व का खूब विस्तार किया गया है । यह सभी जानते हैं कि भौतिक विज्ञान भी अभी अपूर्ण ही है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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