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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय- विवेचन
मान कर इनके लाभ को अपना लाभ मान रहा है, वह वास्तव में तेरा लाभ नहीं है, क्योंकि एक समय ऐसा भी आता है जब वही लाभ भयंकर हानि और भीषण दुःख के रूप में प्रकट हो शोक-संताप का कारण बन जाता है। वह लाभ तेरे पास से चला जाने वाला भी है ।'
आश्चर्य इस बात का है कि भौतिक सुखों के इस प्रकार के प्रत्यक्ष कटु फल देखकर भी लोग पापाचार को नहीं छोड़ते। दिन-रात भौतिक सुखों की प्राप्ति के लिए अन्धाधुन्ध दौड़ की होड़ में लगे हुए हैं। इसका मूल कारण यही है कि भौतिक एषणाओं के पीछे दौड़ लगाने वाले मानव को अभी तक सही दर्शन प्राप्त नहीं हुआ । अन्यथा-‘ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः' इस सूक्ति के अनुसार तत्त्वज्ञान को जान लेने के पश्चात्, सही दर्शन की प्राप्ति के अनन्तर तो तत्त्वज्ञ के मन में संसार और संसार के भौतिक सुखों के प्रति किसी प्रकार का आकर्षण अवशिष्ट ही नहीं रह सकता । सम्यग्दृष्टि का चिन्तन
सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेने वाले व्यक्ति का चिन्तन कैसा होता है, इस सम्बन्ध में प्रकाश डालते हुए आचार्य ने कहा है
एगो मे सासओ अप्पा, नाण- दंसणसंजुओ ।
अर्थात्- तेरा कौन है ? क्या धन-दौलत, कुटुम्ब, परिवार आदि दृश्य संपदा तेरी है ? इसका उत्तर देते हुए आचार्य ने कहा- 'ज्ञान-दर्शनयुक्त केवल एक शाश्वत आत्मा ही तेरी है।' ज्ञान, दर्शन आदि निजगुण ही तेरा धन है । क्योंकि ज्ञान आत्मा का निजगुण है, दर्शन आत्मा का निजगुण है, अक्षय आनन्द उसका निजगुण है और अखण्ड अव्याबाध शान्ति आत्मा का निजगुण है। किसी राजा अथवा राज्याधिकारी की तो शक्ति ही कहां ? देव, देवी और दानव भी यदि आकर आत्मा के इस निजगुण रूपी धन को आपसे छीनने का प्रयास करें तो क्या उसे छीन सकेंगें ? नहीं। उसे वे कभी नहीं छीन सकते।' आचार्य ने फिर आगे कहा
सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा !
'यह धन-दौलत, हीरे, जवाहरात, माणक, मोती, सोना चांदी, कोठी - बंगले एवं कुटुम्ब परिवार तेरे नहीं है । ये सब बाहर के भाव है। धन-दौलत, बंगले, सत्ता, पुत्र, परिवार इन सबको तूं अपना अवश्य कह रहा है, पर ये तेरे साथ रहने वाले नहीं हैं । इनका तेरे साथ सम्बन्ध वस्तुतः संयोगमात्र है ।'
यह सदा याद रखिये कि संसार की जितनी भौतिक साधन-सामग्री है, वह सब विनश्वर है । इस वीतराग वाणी को आप कभी न भूलें कि -
'सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ।'
आत्मगुण के अतिरिक्त शेष सब भौतिक भोगसामग्री, सब वस्तुएं, सब पदार्थ आपसे अलग हो जाने वाले हैं, क्योंकि वे आपके नहीं हैं। उनका आपसे अलग होना सुनिश्चित ही है, ऐसा समझ कर आप उनके प्रति ममत्वभाव का त्याग करें ।
आप सुनिश्चित रूप से यह समझ लें 'केवल मेरे आत्मा के गुण ही मेरे साथ रहेंगे, केवल मेरी आत्मा के गुण ही मेरे हैं, शेष सब बहिर्भाव मेरे नहीं हैं, अतः वे कभी मेरे साथ रहने वाले नहीं हैं।'
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