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________________ जिनवाणी-विशेषाङ्क प्राचीन आचार्यों ने स्पष्ट शब्दों में कहा है-'अय मानव ! यह निश्चय समझ कि यदि कोई स्थायी और टिकाऊ तत्त्व है तो उसे तुझसे कोई अलग नहीं कर सकता। पर पहले यह अच्छी तरह समझ कि तेरा क्या है और तू स्वयं क्या है। जब तुझे अपना स्वयं का सही ज्ञान हो जायगा, स्वयं पर विश्वास हो जायगा तो तुझे सत्कर्म के लिये किसी अन्य के द्वारा प्रेरणा की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।' 'ओ मानव ! वस्तुतः अभी तू बाहर की भौतिक पुद्गल लीला में उलझ रहा है, तुझे अपनी शक्ति पर विश्वास नहीं है। तू निज गुण को पराया और भौतिक संपदा को, जो कि वस्तुतः पर गुण है, उसे अपना मान बैठा है। बस यही तो सबसे बड़ा झमेला है जो भव-भ्रमणादि सब अनर्थों का मूल है।' जिस प्रकार जीवनार्थी को कभी अमृत-पान के लिये प्रेरणा करने की आवश्यकता नहीं पड़ती, उसी प्रकार जिसने आत्मतत्त्व को भलीभांति समझ लिया है, जिसे आत्मविश्वास हो गया है, उस आत्मार्थी को भी वस्तुतः धर्मसाधन के लिये कभी किञ्चित्मात्र भी कहने अथवा प्रेरणा करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। जिस प्रकार आप दुकान के नफा-नुकसान को अपना नफा-नुकसान मानते हैं, क्या उसी प्रकार आपने अपने आध्यात्मिक नफा-नुकसान को भी अपना ही नफा-नुकसान माना है? क्या दुकान का नफा-नुकसान वास्तव में आपका नफा-नुकसान है? नहीं। जिसको आप नफा मानते हैं, वह कभी नुकसान का कारण भी बन सकता है और जिसको आप नुकसान मानते हैं, वह कभी नफे का कारण भी बन सकता है। एक भाई मद्रास में अथवा दक्षिण में कहीं दुकान कर रहा है। उधर लोग बहुत ऊंची दर पर ब्याज लेते-देते हैं। उस भाई ने इसके विपरीत अपनी ब्याज की सीमा सीमित कर बहुत थोड़ी ब्याज की दर पर रकम देने का कुछ वर्ष पूर्व नियम ले लिया। इस प्रकार का नियम लेने से प्रारम्भ में तो उसे बडी कठिनाई हुई। पांच रुपया और छह रुपया तक का ब्याज उधर चलता है। अब यदि कोई पांच-छः रुपया प्रति सैंकडा की दर के स्थान पर डेढ़-दो रुपया प्रति सैंकड़ा की दर से ब्याज लेना आरम्भ करे तो प्रारम्भ में तो उसे आर्थिक हानि दिखाई देगी ही। ___अभी कुछ दिनों पहले वह भाई आया और कहने लगा-'महाराज ! आप से जो नियम मैंने लिया, वह मेरे लिये बड़ा ही लाभकारी रहा। आज वह नियम नहीं होता, तो ब्याज के पैसे तो चौगुने हो जाते पर परेशानी इतनी होती कि आराम से खाना हराम हो जाता। वास्तव में त्याग का नियम मेरे लिए व्यवहार में भी लाभदायक रहा।' हां, तो मैं कह रहा था कि संसार-व्यवहार में जो काम आज एक प्रकार से हानिप्रद प्रतीत हो रहा है, नुकसान के रूप में दिखाई देता है, वही समय पर लाभप्रद बन जाता है, आपत्ति से बचाने वाला सिद्ध हो जाता है। ___ इसीलिए विश्वबन्धु भगवान् महावीर ने फरमाया-'ओ मानव ! भ्रम के आवरण को उतार फेंक। वास्तव में तेरा लाभ तो कुछ और ही है, जिसे तू भ्रान्तिवश देख-समझ नहीं पा रहा है। जिन पैसे, सोना, चांदी, हीरे और जवाहरात को तूं अपना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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