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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय - विवेचन
से। तो फिर इस प्रकार की स्थिति में दुःख मिलने पर किसी अन्य पर रोष करना, किसी दूसरे को दुश्मन समझना, विरोधी अथवा अपना अनिष्ट करने वाला मानना कहाँ तक उचित है ?
जिस प्रकार सुख उसके पूर्वोपार्जित पुण्य का फल है उसी प्रकार वह दुःख भी तो उसी के द्वारा पूर्वोपार्जित पाप का फल है । पाप के पश्चात् पुण्य का और पुण्य के पश्चात् पाप का उदय आ सकता है। जैसे एक स्थान पर छाया है और हम यह चाहें कि वहां सदा सर्वदा छाया ही बनी रहे तो यह संभव नहीं । आज जिस जगह छाया है, वहां कभी धूप आना सम्भव है और जहां आज धूप है वहां कल छाया का आना भी सम्भव है
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यही स्थिति जीवन के साथ भी है। गृहस्थ जीवन में सदा एक ही रूप रहे, दुःख कभी आवे ही नहीं, क्या कभी ऐसा हो सकता है ? नहीं। फिर आदमी का मन डांवाडोल क्यों होता है ? लोग इधर-उधर देव-देवी के चक्कर में, विविध मान्यताओं के चक्कर में, डोरे डांडे के चक्कर में, या अन्य प्रकार की मिथ्यात्व से भरी मान्यताओं के चक्कर में क्यों पड़ते हैं ?
आपको पुण्य-पाप का ज्ञान है, परन्तु उस पर विश्वास नहीं है । मन जमा हुआ नहीं है। इसीलिये अच्छे-अच्छे धर्म-धुरीण कहलाने वाले भाई-बहिन भी भटक जाते हैं । देव-देवियों के जाने के अलावा बलि चढ़ाने के लिए भी तत्पर हो जाते हैं । इन भाई-बहिनों को पूछा जावे कि क्या ऐसा करने से तुम्हारा बीमार बच्चा, परिवार का बीमार सदस्य स्वस्थ हो जायेगा या जिन्दा हो जायेगा ? - और अगर नमस्कार मंत्र के ध्यान पर दृढ़ता से रहा जावे, पंच परमेष्ठी की शरण में ही रहें तो क्या देव-देवी नाराज हो उन्हें उठाकर ले जायेंगे ? किसी की ताकत नहीं है उठाकर ले जाने की । न किसी देव की ताकत है, न किसी देवी की ताकत है और न किसी मानव अथवा दानव की यह ताकत है कि उनमें से भी किसी प्राणी के पुण्य और पाप के विपरीत किसी तरह से उनके सुख-दुःख में, उसके भोगने न भोगने में दखलन्दाजी कर सके। लेकिन मानव यह सब कुछ जानता- बूझता भी डांवाडोल हो जाता । अब वह डांवाडोल क्यों हुआ? इसीलिए कि नींव में कहीं कचावट है । वह कचावट यही है कि उस व्यक्ति का दर्शन विशुद्ध नहीं हुआ है। प्रश्न किया गया कि धर्म का सार अथवा इसका मूल क्या है ? तो आचार्यों ने कहा
'दंसणमूलो धम्मो ।'
अर्थात् हमारे धर्म का, हमारे व्रत, नियम एवं साधना का मूल 'दर्शन' है, सम्यग्दर्शन है ।
दर्शन अर्थात् निश्चय की प्राप्ति जब आपको हो जायगी, जब आप दर्शन-धर्म को समझ लेंगे तो आपके मन को यह विश्वास हो जाएगा कि ज्ञान-दर्शन युक्त आत्मा शाश्वत है, तो नींव की, अथवा मूल की वह कचावट स्वतः ही दूर हो जायेगी । दर्शन विशुद्धि कब ?
संसार में आत्मतत्त्व क्या है, सम्यग्दर्शन का लक्षण क्या है ? इसे समझाते हुए
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