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________________ जैनाचार्यों की गणितीय सम्यक् दृष्टि * x प्रोफेसर एल. सी. जैन जैन ग्रंथों में गणित का विशिष्ट प्रतिपादन है । आध्यात्मिक साधना के सन्दर्भ में भी गणित का प्रयोग हुआ है, यह तथ्य प्रस्तुत लेख से स्पष्ट एवं पुष्ट होता है । - सम्पादक विश्व प्रसिद्ध गणितज्ञ महावीराचार्य ने सर्वप्रथम अपने ग्रंथ गणितसारसंग्रह में कहा है 'अलङ्घ्यं त्रिजगत्सारं यस्यानन्तचतुष्टयम् । नमस्तस्मै जिनेन्द्राय महावीरतायिने ॥ १ ॥ संख्याज्ञानप्रदीपेन जैनेन्द्रेण महात्विषा । प्रकाशितं जगत्सर्वं येन तं प्रणमाम्यहम् ॥ २ ॥' अर्थात् जिन्होंने तीनों लोकों में सारभूत एवं मिथ्यादृष्टियों द्वारा अलंघ्य अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य और अनन्त सुख नामक अनन्त चतुष्टय को प्राप्त किया है, ऐसे रक्षक जिनेन्द्र भगवान् महावीर को मैं नमस्कार करता हूं ॥ १ ॥ मैं महान् विभूति को प्राप्त जिनेन्द्र को प्रणाम करता हूँ जिन्होंने संख्या ज्ञान के प्रदीप से समस्त विश्व को प्रकाशित किया है || २ || पुनः गणितशास्त्र की प्रशंसा में आगे ६ श्लोकों में प्रगाढ़ चिन्तन देते हुए अंत में कहते हैं 'बहुभिर्विप्रलापैः किं त्रैलोक्ये सचराचरे । यत्किञ्चिद्वस्तु तत्सर्वं गणितेन विना न हि ॥ १६ ॥ अर्थ-‘बहुत से व्यर्थ के प्रलापों से क्या लाभ है ? जो कुछ भी इन तीनों लोकों में चराचर वस्तुएं हैं उनका अस्तित्व गणित से विलग नहीं । स्पष्ट है कि सम्यक् दृष्टि का अस्तित्व भी गणित के बिना नहीं है । विगत दिनों हमने कुछ पत्रिकाओं में एतद्विषयक लेख दिये हैं जहाँ सम्यक् दर्शन को उत्पन्न करने वाली विधि या प्रणाली में, गणित के प्रयोग की चर्चा की है । पुनः सम्यक् दृष्टि उत्पन्न होने के पश्चात् भी गणित साथ नहीं छोड़ता, क्योंकि मुक्ति होने तक जो वस्तु अस्तित्व में आ चुकी है उसका अस्तित्व भी गणित के बिना न रह सकेगा । अस्तु हम यह भी देखना चाहेंगे कि सम्यक् दृष्टिवान् जैनाचार्य आगे किस प्रकार गणित को साथ में लेकर भगवान महावीर के संख्याज्ञान के प्रदीप से अखिल सृष्टि को प्रकाशवान् करते चले गये - सूत्रों एवं हजारों पृष्ठों में रचित टीकाओं द्वारा जो मात्र दो पूर्वों के किंचित् अंशमात्र को लेकर ही लिखी गई थीं। यह भी बतलाने की पुनः पुनः आवश्यकता नहीं है कि ये जैनाचार्य ही थे, जिन्होंने ब्राह्मी एवं सुन्दरी लिपि की रचना, भाषा एवं गणित की वैसाखी के लिये की, जिनके सहारे आज हम कर्म - सिद्धान्त के गणितीय स्वरूप को लिये भी चल रहे हैं। गणितीय स्वरूप को केशववर्णी या पं. टोडरमल ने निखारने का भागीरथी प्रयास किया, किन्तु विश्व में १८६४ ई. में अनन्त राशियों सम्बन्धी गणितीय क्रांति हो जाने के पश्चात् भी हमने उस गणित से अपने गणित का तुलनात्मक अध्ययन करने हेतु न तो पहल की है, न ही ध्यान दिया है, न ही कोई शाश्वत केन्द्र स्थापित किया है। दो पैर ही हमें गंतव्य की ओर ले जा सकते गणितज्ञ एवं निदेशक, ए.वी.आर. आई., जबलपुर * Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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